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________________ ( ३८) कल्याणकारके औषध प्रयोग विधान। हीनं त्वकिंचित्करतामुपैति तस्मात्समं साधु नियोजनीयं ।' दत्वाल्पमल्प दिवसत्रयेण मात्रां विदध्यादिह दोषशांत्यै ॥ ३७॥ भावार्थ:-यदि हीन मात्रासे औषधि प्रयोग किया जाय, तो वह फलकारी नहीं होता है । इसलिए [ न हीनमात्रा हो न अधिक ] सममात्रासे ठीक २ प्रयोग करना चाहिए । (प्रयत्न करने पर भी, अग्नि आदिका प्रमाण स्पष्ट मालूम न हो तो ) दोष शांतिके लिए, अल्पमात्रासे आरम्भकर थोडा २ तीन दिन तक बढाकर, योग्य मात्राका निश्चय कर लेना चाहिए ॥ ३७॥ जीर्णाजीर्ण औषध विचार । सवाणि सााणि वरौषधानि वीर्याधिकानीति वदंति तज्ज्ञाः । सर्पिर्विडंगाः सह पिप्पलीमिर्जीणा भवंत्युत्तमसद्गुणाढ्याः ॥ ३८ ॥ भावार्थ:----संपूर्ण आर्द्र अर्थात् नये औषधियोंमें अधिक शक्ति है ऐसा तज्ज्ञ लोग कहते हैं । लेकिन् , विडंग, पीपल, और घी ये पुराने होनेपर नये की अपेक्षा विशेष गुण युक्त होते हैं ॥ ३८ ॥ स्थूल आदि शरीरभद कथन । मूत्रक्रमाद्भेषजसंविधानमुक्त्वा तु दहनविभागमाह। स्थूलः कृशो मध्यमनामकश्च तत्र प्रधानं खलु.मध्यमाख्यम् ॥ ३९॥ भावार्थ:-इस प्रकार औषधिके संबंध में आगमानुसार कथन कर :अनः देहके भेदको कहेंगे । वह देह, कृश, स्थूल व मध्यमके भेदसे तीन प्रकारका रहे, उसमें मध्यम नामक देह प्रधान हे ॥ ३९ ॥ प्रशास्ताप्रशस्त शरीर विचार स्थलाकृशश्चायतिनिंदनीयो भाराश्वयानादिषु वर्जनायो । ..। सर्वास्ववस्थास्वपि सर्वथेष्टः सर्वात्मना मध्यमदेहयुक्तः ॥४०॥ भावार्थ:--स्थूल व कृश देह अत्यंत निंद्य हैं । एवं भारवहन, घोडकी सवारी आदिकार्यमें ये दोनों शरीर अनुपयोगी हैं । सर्व अवस्थावो में, सर्व तरह से, सर्वथा मध्यम देह ही उपयोगी है ॥ ४०॥ __ स्थूलादि शरीर की चिकित्सा स्थूलस्य कार्य करणीयमत्र रूक्ष्यौषधै जनपानकाद्यैः । स्निग्धैस्तथा पुष्टिकरैः कृशस्य पथ्यैस्सदा मध्यमरक्षणं स्यात् ॥ ४१.... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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