________________
सूत्रव्यावर्णनम्
भावार्थ:-जहांपर नधे २ अंकुरोंसे व्याप्त प्रफुल्लितलतायें उत्पन्न होती हों, फल भरित वृक्ष हों, सर्वत्र मधुरता, सुंदरता व सुगंधि छारही हो, जहां पर मधुर आदि श्रेष्ठ रस अधिक मात्रासे व्याप्त हों, जहांका पानी अयंत स्वादिष्ट हो, जो समशीतोष्ण प्रदेश हो, सुरूप हो, सर्व रसायनोंसे युक्त साधारण देश हो, काले वर्ण युक्त मृदुव प्रसन्न जमीन हो, ऐसा क्षेत्र औषध संग्रहके लिए योग्य है ॥ ३१ ॥ ३२ ॥
सुक्षेत्रोत्पन्न अप्रशस्त औषधि । अत्रापि संजातमहोषधं यदावानलाद्यातपतीयमार्गः । शखाशनिमस्फुटकीटवातैः संवाध्यमानं परिवर्जनीयं ॥ ३३ ॥
भावार्थ:-ऐसे सुक्षेत्र में भी उत्पन्न उत्तम औषधि, दावानल, धूप, जल आदिसे और शस्त्र, बिजली, कीडे, हवा आदि कारणसे दूषित हुई हो तो उसे भी छोडदेनी चाहिये ॥ ३३ ॥
प्रशस्त औषधिका लक्षण स्वल्पं मुरूपं सुरसं सुगंधं । मृष्टं सुखं पथ्यतमं पवित्रम् । साक्षात्सदा दृष्टफलं प्रशस्त । संप्रस्तुतार्थ परिसंगृहीतं ॥ ३४ ॥
भावार्थ:-यह औषधि स्वल्प क्यों न रहे परंतु सुरूप, सुरस, सुगंध, सुखकारक, स्वादिष्ट, पथ्यरूप, शुद् व साक्षात्फलप्रद होती है, वही प्रशस्त है । ऐसी औषधि चिकित्साकर्म केलिये संग्रहणीय है ।। ३४ ॥
परीक्षापूर्वक ही औषधप्रयोग करना चाहियं एवविध भेषजमातुराग्नि-व्याधिस्वरूपं मुनिरीक्ष्य दत्तं ।
रोगाभिहंत्याशु तदातिघोरान् । हीनाधिकं तद्विफलादिदोषं ॥ ३५ ॥ __ भावार्थः ---उपर्युक्त प्रकारकी निर्दोष औषधिका प्रयोग यदि रोगीकी अग्नि, वय, बल, देश, काल, रोगस्वरूप आदिको देखकर किया गया तो वह शीघ्र भयंकर रोगों को भी नाश करती है। यदि औषध दोषसहित हो या अग्नि आदि का विचार न करके पयोग किया जाय तो विफल होता है ॥ ३५॥ . अधिकमात्रासे औषधिपयोग करनेका फल मूर्खामदग्लानिविदाहतोदात्याध्मानविष्टंभविमोहनादीन् । मात्राधिक घोषधमत्र दत्तं । कुर्यादजीणे विषमाग्नितां च ॥ ३६ ॥
भावार्थ:-मात्रासे अधिक औषधिका प्रयोग करें तो मूर्छा, मद, ग्लानि, दाह पीडा, अफराना, मलका अवरोध, भ्रम एवं अजीर्ण व विषमाग्नि आदि अनेक रोगोंकी उत्पत्ति होती है ।। ३६ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org