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कल्याणकारके मोठे पदार्थीका प्रेमी, माधुर्यगुणसे युक्त, वीर, धीर, मनोहर, सहिष्णु सुख, दुःख, शीत, उष्ण आदि को सहन करनेवाला, व्यसनरहित, शिक्षाकलावोंसे युक्त, ( इनमें प्रवीण ) शीघ्र जानने में असमर्थ अर्थात् गम्भीर, सुंदर शरीर धारक, सुंदरनेत्री, होता है, और स्वप्न में हंस पक्षी, पद्म, नीलकमल, युक्त, वापी ( ा ) व नदीको देखता है ॥ २५ ॥ २६ ॥ २७ ॥
क्षेत्रलक्षण कथन-पतिज्ञा । इत्थं लसत्सत्प्रकृतिं विधाय । वक्ष्यामहे भेषजलक्षणार्यम् । मुक्षेत्रमाणगुणप्रशस्तम् । श्वभ्रात्मवल्मीकविषैविहीनम् ॥ २८ ॥
भावार्थ:---इस प्रकार प्रकृति लक्षणका निरूपण कर अब औषध ग्रहण करने के लिये योग्य श्रेष्ठगुण युक्त, छिद्र, नरककुण्डसदृश वामी व विषरहित प्रशस्त क्षेत्रका वर्णन करेंगे ॥ २८ ॥
औषधिग्रहणार्थ अयोग्य क्षेत्र । देवालयं प्रेतगणाधिवासं । शीतातपात्यंतहिमाभिभूतम् । सोयावगाढं विजलं विरूपं । निस्साररूक्षक्षुपवृक्षकल्पम् ।। २९ ॥ क्षेत्रं दरीगुबगुहागभूतं । दुर्गधसांद्रं सिकतातिगाढम् । वयं सदा नीलसितातिरक्तं । भस्माभ्रकापोतकनिष्ठवर्णम् ॥ ३० ॥
भावार्थः---देवालय भूतप्रेतादि के निवास भूमि ( स्मशान आदि ) अत्यंत शीतप्रदेश, अत्यंत उष्ण प्रदेश अत्यंत हिमयुक्त प्रदेश, अत्यधिक जलयुक्त प्रदेश, निर्जल, विरूप प्रदेश, निम्सार रूक्ष, क्षुद्रवृक्षों के समूहसे युक्त, ऐसे पर्वत, पर्वतोंके अत्यधिक गुह्य ( अंधकारमय ) गुफा, दुर्गध से युक्त, अधिक बाल रेत सहित, नील, सफेद, अत्यंत लालवर्ण, भस्मवर्ण, आकाशवर्ण व कबूतरका वर्ण आदि नीच वर्णोसे युक्त क्षेत्र औषध ग्रहण करने के लिये आयोग्य हैं अर्थात् ऐसे प्रदेशोमें उत्पन्न औषध ग्राह्य नहीं हो सकता है ॥ २९ ॥ ३० ॥
औषधग्रहणार्थ प्रशस्तक्षेत्र । स्निग्धमराहाकुलफुलवल्ली लीलाफलालालमहीरुहाख्यम् । माधुर्यसौंदर्यसुगंधबंधि प्रस्पष्टपुष्टोरुरसमधानं ॥ ३१ ॥ सुस्वादुतोयं सुसमं सुरूपं साधारणं सर्वरसायनान्यम् । क्षवं सुकृष्णं मृदुसुमसनं ज्ञेयं सदा यौषधसंग्रहाय ।। ३२ ॥
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