SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रव्यावर्शनम् भावार्थ:-सदा कक्ष औषधि, भोजन पान आदिकोंसे स्थूल शरीर को कृश करना चाहिये, कृश शरीरको स्निग्ध तथा पुष्टिकर औषधि, अन्न पानोंसे.पुष्ट बनाना चाहिये, और पथ्यसेवन से मध्यम देहका रक्षण करना चाहिये अर्थात् स्थूल, व कृश होने नहीं देवें ॥ ४१ ॥ ... साध्यासाध्य विचार दोषैः स्वभावाच्च कृशत्वमुक्तं दापोद्भवं साध्यतमं वदंति । स्वाभाविकं कृच्छ्रतमं नितांतं यत्नाच्च तद्वंहणमेव कार्य ॥ ४२ ॥ भावार्थः- कृश शरीर एक तो दोषों से उत्पन्न दूसरा स्वाभाविक, इस प्रकार दो भेदसे युक्त, है,। दोषोंसे उत्पन्न साध्य कोटिमें है, परंतु स्वाभाविक कृश, अत्यंत कठिन, साध्य है । उसको प्रयत्न कर पोषण करना ही पर्याप्त है ॥ ४२ ॥ . स्थूलशरीरका क्षीणकरणोपाय । स्थूलस्य नित्यं प्रवदंति तज्ज्ञा विरेचनैर्योगविशेषजातैः । रूः कपायैः कटुतिक्तवगैराहारभैषज्यविधानमिष्टं ।। ४३ ॥ भावार्थ:-स्थूल शरीर वालेको [ कृश करने के लिये. ] विरेनन के नानाप्रकारका योग, रूक्ष, कषाय, कटु, तिक्तादिक औषधिवर्ग, व तत्सदृश आहारग्रहण आदि उपयुक्त है ऐसा आयुर्वेदज्ञ लोग कहते हैं ॥ ४३ ॥ क्षीणशरीर को समकरणोपाय । क्षीणस्य पानयिमतः प्रशस्तं । भुक्त्वोत्तरं क्षीरमपीह देयम् । . नस्यावलेहैः कवलग्रहर्वा । नित्यं तदग्निः परिरक्षणीयः ॥ ४४ ॥ भावार्थ:--कृश शरीरवालेको भोजन के बाद दूध या पानीको पिलामा चाहिये। एवं नस्य, अवलेह, कवलग्रहण आदि यथायोग्य उपायोंसे उसकी अग्नि की. सदा रक्षा करें ॥ ४४ ॥ मध्यमशरीर रक्षणोपाय । वाम्यो वसंते स च मध्यमाख्यो वर्षासु बस्ति विदधीत तस्य । वोचनं शारदिकं विधानम् । स्वस्थस्य संरक्षणमिष्टमायः ॥ ४५ ॥ भावार्थ:---मध्यम शरीवालेको वसंतऋतुमें वन कराना चाहिये, वर्षाऋतुम बस्तिक का प्रयोग करना चाहिये, एवं शरत्कालमें विरेचन देना चाहिये, इस प्रकार मध्यम शरीवाले के स्वास्थ्यकी रक्षा करनी चाहिये ॥ ४५ ॥ १. वसंतऋतुमें कफ, वर्षाऋतु में वायु, व शरदृतु में पित्त का प्रकोप ऋतुस्वभावसे होता है । इन दोषों के जीतने के लिये यथाक्रम वमन, बस्ति व विरेचन दिया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy