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(४०)
कल्याणकारके
स्वास्थ्य बाधक कारणों का परिहार। अत्यम्लरूक्षाधिकभोजनाति--व्यायामवातातपमैथुनानि । नित्यं तथैकस्य रसस्य सेवा । वानि दोषावहकारणानि ॥४६ ॥
भावार्थ:-अत्यधिक खट्टे पदार्थ, रूक्षपदार्थोसे युक्त भोजन, अत्यधिकव्यायाम करना, अत्यधिक हवा खाना, अत्यधिक धूप व गर्मी को सहन करना, अत्यधिक मैथुन सेवन करना एवं नित्य एक ही रसका सेवन करना आदि बातें जिनसे शरीरमें अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न होते हैं सदा वर्ण्य हैं ।। ४६ ॥
___ वातादिदोषों के कथन देहक्रमं साधु निरूप्य रोगान् वक्ष्यामहे मूत्रविधानमार्गात् । वातः कफः पित्तमिति प्रतीता दोषाः शरीरे खलु संभवंति ॥४७॥
भावार्थ:- इस प्रकार देहके भेद व उनके रक्षणोपाय आदि विषय अच्छीतरह निरूपण कर अब आचार्योंके द्वारा उपदिष्ट आगममार्गसे, शरीरस्थ रोगोंका निरूपण करेंगे । इस शरीरमें वात, पित्त व कफके नामसे प्रसिद्ध तीन दोष हैं जो उद्रिक्त होकर अनेक रोगोंको उत्पन्न करते हैं ॥ ४७ ॥
वातादि दोषलक्षण। वातः कटू रूक्षतरश्चलात्मा पिचं द्रवं तिक्ततरोष्णपीतम् । स्निग्धः कफः स्वादुरसोतिमंदः स्वतो गुरुः पिच्छिलशीतलः स्यात्॥४८॥
भावार्थ:--वात दोष कटु, रूक्षतर व चलस्वभाववाला होता है । पित्तदोष द्रवरूप है, तीखा व उष्ण है। उसका वर्ण पीला है। एवं कफ स्निग्ध होता है, मधुर रसयुक्त व गाढा रहता है तथा उसका स्वभाव वजनदार पिलपिला व ठण्डा है। इस प्रकार तीनों दोषोंका लक्षण है ।। ४८ ।।
कफका स्थान । आमाशये वक्षसि चोत्तमांगे कंठे । च संधिष्वखिलेषु सम्यक् । स्थित्वा कफः सर्वशरीरकार्य कुर्यात्स संचारिमरुद्रशेन ॥ १९ ॥
भावार्थ:-उस कर्फ को [ मुख्यतः ] रहने के स्थान पांच है। लेदक कफ आमाशयमें, अवलम्बक कफ वक्षस्थल ( छाती ) में, तर्पक कफ शिर में, बोधककफ कण्ठ (गले ) में और श्लेष्मक कफ सर्व संधियोंमें रहता है । इस प्रकार स्वस्थानोंमें रहते हुए संचार स्वभावयुक्त वातकी सहायता से सर्व शरीर कार्य को करता है ॥ ४९॥
.. १-कफ के भेद पांच है । उस के नाम इस प्रकार है । क्लेदक, अवलम्बक, तर्पक, बोधक और श्लेष्मक ।
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