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सूत्रव्यावणनम्
(४१)
पित्तका स्थान । पक्वाशयामाशययोस्तु मध्ये हृद्वत्क्वचित्मोक्तयकृप्लिहासु। पिचं स्थितं सर्वशरीरमेव व्याप्नोति वातातिगमेव नीतम् ॥ ५० ॥
भावार्थ:--आमाशय और पक्वाशयके बीचमे, हृदय स्थानमें, पहिले कहे हुए यकृत् ( जिगर ) व प्लीहा के ( तिल्ली ) स्थानमें पित्त रहता है और वह वातके द्वारा चलन मिलकर सर्व शरीरमें व्याप्त होता है ॥ ५० ॥
वातका स्थान शोणीकटीवंक्षणगुप्तदेशे । वायुः स्थितः सर्वशरीरसारी । दोषांश्च धातून् नयति स्वभावात् । दुष्टः स्वयं दृषयतीह देहम् ॥ ५१ ॥
अवलम्बकः--यह स्वशक्ति के बल से हृदय को बल देता हैं एवं अन्य कास्थानो में कफ पहुंचाते हुए उनको अवलम्बन करता है इसलिये इस का अवलम्बक नाम सार्थक है ।
क्लेदकः-यह आमाशय में आए हुए अन्नको क्लेदित [धीला ] करता है, अत एव पाचन क्रिया में सहायक होता है।
तर्पका-यह शिर में रहते हुए आंख, नाक आदि गले के ऊपर रहने वाले इन्द्रियों को तृप्त करता है तर्पण करता है । इस हेतुसे इसका तर्पक नाम सार्थक है ।
बोधकः-यय जीभ में रहते हुए मधुर अम्ल आदि रसोंके ज्ञान [बोध ] में सहायक होता है । इसलिये इसका नाम बोधक है।
श्लेष्मकः-यह सम्पूर्ण हड्डियों के जोड में रहकर, चिकनाहट करता है इसलिये हड्डियों में परस्पर रगड खाने नहीं देता हैं और गाडीके पहियों के बीच में लगाया गया तेल जिस प्रकार उनको उपकार करता है वैसे ही यह संधियों को मजबूत रखता है। इसलिये इसका श्लैष्मिक नाम भी सार्थक है।
१-पित्त का भी पाचक भ्राजक, रंजक आलोचक साधक इस प्रकार पांच भेद है।
पाचकः-यह आमाशय, और पक्वाशय के बीच में रहता है । अन्नको पचाता है इसी लिथे इसको जठराग्नि भी कहते हैं | अन्न के सारभूत पदार्थ और किट [निःसार मल) को अलग
करता है। एवं स्वस्थान में रहते हुए अन्य पित्त के स्थानों में पित्त को रवाना कर उन को अनुग्रह करता है।
भ्राजक:-इस के रहने का स्थान त्वचा हैं । यह शरीर में कांति उत्पन्न करता है।
रंजकः-यह जिगर और तिल्ली में रहता है। और इन में आये हुए रसको रंग कर रक्त बना हेता है।
आलोचकः—यह आंख मे रहता हैं और रूप देखनेमें सहायक होता है ।
साधकः-यह हृदय में रहता है । बुद्धि, मेधा, अभिमान आदिको उत्पन्न करता है। और अभिप्रेत अर्थ के सिद्ध करने में सहायक होता है ।
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