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________________ (४२) कल्याणकारके भावार्थः-----सर्व शरीरमें संचरण करनेवाला वायु विशेषकर नितंब प्रदेश, कटी, जांघोंका जोड [रांङ] व गुप्त प्रदेशमें निवास करता है। एवं दोष व रसादि धातुओंको, अपने स्वभाव से यथास्थान पहुंचाता रहता है । यदि कदाचित् स्वयं दूषित होजाय तो देहको भी दूषित करता है ॥ ५१.॥ प्रकुपित दोष सबको कोपन करता है। एको हि दोषः कुपितस्तु दोषान् तान्दूपयत्यात्मनिवाससंस्थान् । तेषां प्रकोपानिह शास्त्रमार्गाद्वक्षामहे व्याधिसमुद्भवार्थान् ।। ५२ ।। भावार्थः ---कोई भी एक दोष यदि कुपित होजाय तो उसके आश्रयमें (स्थान में रहनेवाले ) समस्त दोषोंको वह कुपित करता है जिससे अनेक रोगजाल उत्पन्न होते हैं। ऐसे दोषप्रकोपोंके विषयमें अब आगम मार्गसे कथन करेंगे ॥ ५२ ॥ . १-यहां जो नितम्ब आदि वातका स्थान बतलाया है वह प्राण अपान, समान उदान, व्यान नामवाला पंचप्रकार के वातका नहीं है । लेकिन यह साधारण कथन है। अन्य ग्रंथो में भी ऐसा कथन पाया जाता है जैसे वातका स्थान छह है । आठ पित्त का स्थान है आदि । इस प्रकार कथन कर के भी पांचप्रकार के वातोंके स्थान का वर्णन पृथक् किया है। उसका स्पष्ट इस प्रकार है। प्राणवायु:-यह हृदय में रहता हैं किसी आचार्य का कहना है कि वह मस्तक में रहता है । लेकिन छाती, व कण्ठ, में चलता फिरता है । खाया हुआ अन्न को अंदर प्रवेश कराता हैं बुद्धि हृदय, इंद्रिय व मनः को धारण करता है अर्थात् इनके शक्ति को मजबूत रखता है । एवं थक, छींक, डकार, निश्वास, आदि कार्यों के लिये कारण भूत है। उदानवायुः---यह छाती में रहता है । नाक, नाभि, गल इन स्थानोंपर संचरण करता है । एवं बोलना, गाना आदि से जो शब्द, या स्वर की उत्पत्ति होती है उसमें यह साधनभूत है । समानवायुः--यह आमाशय, और पक्वाशय में रहता है इन ही में चलता फिरता है। अग्नि के दीपन मे सहायक है । अन्न को ग्रहण करता है, और पचाता है सारभाग, और मलभाग को अलग २ करता है एवं इनको जाने देता है। अपानवायुः--यह पकाशय में रहता है बस्ति ( मूत्राशय, शिश्भेन्द्रिय, गुद इन स्थानों में चलता फिरता है । एवं वायु, मूत्र, मल मूत्र, शुक्र, रज, और गर्भको, योग्य काल में बाहर निकाल देता है। व्यानवायुः—यह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर रहता है लेकिन इसका ठहरनेका मुख्य स्थान हृदय है । चलना, आक्षेपण, उत्क्षेपण आंख मचिना, उधडना, रस रक्त आदिको लेजाना, पसीना, रक्त आदिको बाहर निकालना आदि, शरीर के प्रायः सम्पूर्ण कार्य इसी वायु के ऊपर तीनों दोषों का जो नियत स्थान बतलाया है वह अविकृत दोषोंका है विकृत दोषोंका नहीं है । एवं ये दोष इन स्थानों में ही रहते हों अन्य स्थान में नहीं रहते हों यह बात नहीं। यों तो सम्पूर्ण दोष सर्व शरीर में रहते हैं । यहां एक ही दोष का पांच भेद बालाया है । लेकिन इन सब के लक्षण एक ही है । स्थान विशेष में रहकर विशिष्ट काम को करने के कारण, अलग २ नाम, व भद किये गये है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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