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वर्ष के स्वाद्वादमतके अनुयायित्वको गणितसार संग्रह के कर्ता महावीराचार्य ने भी समर्थन किया है । इसी अमोघवर्षके शासनकाल में ही प्रसिद्ध राद्धांत ग्रंथकी टीका जयधवला की (श, सं. ७५९ वि. सं. ८९४ ई. स. ८३७) रचना हुई थी । रत्नमालिका के निम्न श्लोक से यह भी स्पष्ट है कि अंतिमवय में अमोघवर्ष वैराग्य जागृति से राज्यभोग छोडकर आत्मकल्याण में संलग्न हुआ था।
विवेकात्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका।
रचितामोघवर्षेण सुधियां सदलंकृतिः ॥ __ अमोघवर्ष के संबंधमें बहुत कुछ लिग्वा जासकता है । क्यों कि वह एक ऐसा वीर राष्ट्रकूट नरेश हुआ है, जिसने जैनधर्मकी महत्ताको समझकर उसकी धवलपताका को विश्वभर में फैलाई थी। परंतु प्रकृतमें हमें इतना ही सिद्ध करना था कि अमोघवर्षकी ही उपाधि नृपतुंग, वल्लभ, भहाराजाधिराज आदि थे । हरिवंश पुराण के कर्ता जिनसेनने भी ग्रंथ के अंत में “ श्रीवल्लभे दक्षिणां" पदसे दक्षिण दिशाके राजा उस समय श्रीवल्लभ का होना गाना हैं। हमारे ख्याल से यह श्रीवल्लभ उग्रादित्याचार्य के द्वारा उल्लिखि श्रीवल्लभ अमोघवर्ष ही होना चाहिए । इसलिए अब यह विषय बहुत स्पष्ट होगया है कि उग्रादित्याचार्य नृपतुंग ( अमोघवर्ष) के समकालीन थे । २५३ परिच्छेदमें उन्होंने जो अपना परिचय संक्षेपमें दिया है, उससे यह ज्ञात होता है कि उनके गुरु श्रीनंदि आचार्य थे, जिनके चरणोंको श्रीविष्णु राजपरमेश्वर नामक राजा पूजता था । यह विष्णुराज परमेश्वर कौन है ? हमारा अनुमान है कि यह विष्णुराज अमोघवर्षके पिता गोविंदराज तृतीय का ही अपरनाम होना चाहिए । कारण महर्षि जिनसेनने पार्थाभ्युदयमें अमोघवर्षको परमेश्वरकी उपाधि से उल्लेख किया है । हो सकता है कि यह उपाधि राष्ट्रकूटों की पितृपरंपरागत हो । परन्तु ऐतिहासिक विद्वान् विष्णुराजको चालुक्य राजा विष्णुवर्धन मानते हैं । इससे उग्रादित्याचार्य के समय निर्णय करने में कोई बाधा नहीं आती है । क्यों कि उस समय इस नामका कोई चालुक्य राजा भी हो सकता है। इसलिए यह निश्चित है कि श्रीउग्रादित्याचार्य महाराजाधिराज श्रीवल्लभ नृपतुंग अमोघवर्षके समकालीन थे। इस विषयका समर्थन प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता प्राक्तनाविमर्शविचक्षण, महामहोपाध्याय, प्राच्यविद्यावैभव, रायबहादुर नरसिंहाचार्य M. A. M. RA... ने निम्न लिखित शब्दोंसे किया है।
" Another manuscript of some interest is the medical work Kalyanakaraka of Ugraditya, a Jaina autbor, who was a conteinporary of the Rashtrakuta king Amogha varsha I and of the Eastern Chalukya king kali Vishnuvardhana V. The work opens with the statement that the science of medicine is divided into two parts, namely prevention and cure, and gives at the end a long disco. urse in Sanskrit prose on the uselessness of a flesh diet, said ta
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