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________________ ( २१८ ) कल्याणकारके भावार्थ:- अपने प्रकोप कारणों से, दूषित पित्तसे उत्पन्न महोदर में दाह, तृष्णा, ज्वर, शोत्र आदि विकार होते हैं । महान्त्र व ( पेटसम्बधी ) शिरा समूह पीले वर्णका होता है, एवं यह शीघ्र पसरनेवाला होता है ॥ १२९ ॥ कफोदर लक्षण | गुरुस्थिरं स्निग्धतरं सुशीतं । महत्सितं शुलशिरावनद्धम् ॥ क्रमात्प्रवृद्धं जठरं सशोफम् । कफः करोति स्वयमेव दुष्टः ॥ १३० भावार्थ --- अपने प्रकोपकारणों द्वारा प्रकुपित कप से उत्पन्न महोदर में उदर भारी, स्थिर, कठिन, चिकना, ठण्डा बडा व सफेद होजाता है एवं शिरा [ उदरसम्बधी ] भी सफेद होती | शरीर शोधयुक्त होता है । एवं रोग धीरे २ बढता है ॥ १३० ॥ सन्निपादर निदान | समूत्रविकारांताने । विषेदापि विषप्रयोगः ॥ सरक्तदोषाः कुपिताः प्रकुर्यु- । महोदरं दूषिविषांदुजातम् ॥ १३१ ॥ भावार्थ:- मल, मूत्र, बीर्य, रजसहित अन्नके सेवन से विषजल के सेवन से एवं अन्य विनोंके प्रयोग रक्त के साथ तीनों दोष, प्रकुपित होकर सान्निपातिकोदर [दूष्योदर ] रोगको उत्पन्न करते हैं । ॥ १३१ ॥ सन्निपातोदरलक्षण | तदेतदत्थंबु ददुर्दिनेषु । विशेषतः कोपमुपैति नित्यम् ॥ तदानुगां मुच्छेति तृष्णया च । विदाहृते दाहपरीतदेहः ॥ १३२ ॥ भावार्थ: - यह विशेषकर बरसात के दिनोंमें उन में भी जिस दिन आकाश अत्यधिक बादल से आच्छादित होता है उसदिन उद्विक्त होता है। इसके प्रकोप होने से रोगी मूर्च्छित होता है एवं अत्यधिक प्यास लगनेसे, सारे अंगों में दाह उत्पन्न होता है, इसलिये वह जलन का अनुभव करता है ॥ १३२ ॥ यकृप्लिहोदर लक्षण । ज्वरातिदाहात्मयुपाना-द्विदाहिभि पितरक्तकोपात् । लिहाभ्यामाकं प्रवृद्धं । महोदरं दक्षिणवामपार्श्वे ॥ १३३ ॥ १ स्त्रियां अज्ञानसे, पुरुषौको वशवर्ति करने के लिये, मल मूत्र आदि अन्न में मिलाकर खिला देती हैं । वैरीगण, मारने आदि के वास्ते, विषप्रयोग करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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