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महामयाधिकारः।
(२१९)
भावार्थ:-ज्यर, अत्यंत दाह, अत्यधिक पानी पीने व विदाहि पदार्थोंके सेवनसे दूषित रक्तके प्रकोप होनेसे दक्षिण भागमें यकृत् व वाम भागमें टिहा बढ जाता है। इस से, यकृदुदर, प्लीहोदर उत्पन्न होता है या इसी को यकृत्प्लीलोदर कहते
बद्धोदर लक्षण । सबालपाषाणतणावरोधात् । सदांत्र एवातिचितं मलं यत् । महोदरं बद्धगुइमतीतं । करोत्यमेध्यादिकगंधयुक्तम् ॥ १३४ ॥
भावार्थ:--भोजन में छोटे कंकर, य घासके टुकडे आदि जाकर आंतडीमें रुक जानेसे सदा मल आंत्रमें ही जमा होजाता है, तब मलावरोध होता है। और बहुत मुश्किल से निकलता है । इसे बद्धोदर कहते हैं एवं उससे अमेध्यादिक दुगंध युक्त होते हैं ॥ १३४॥
स्त्रवि उदर लक्षण । सशल्यमज्ञानत एव भुक्तं । तदंत्रभेद प्रकरोति तस्मात् । परिस्रवीररसप्रवृद्धं । महोदरं सावि भवेत्स्वनाम्ना ॥ १३५ ॥
भावार्थ:--भोजन के समय नहीं जानते हुए कांटे को खाजावे तो वह अंदर जाकर अंत्रभेदन करता है । तब आंतडीसे बहुत, ( पानी जैसा ) रसका स्राव होकर गुद मार्ग से निकलता है । सुई चुभने जैसी पीडा आदि लक्षण प्रकट होते हैं। इसे स्रावि उदर कहते हैं ॥ १३५ ।।
जलोदर निदान । यदेव वांतः सुविरिक्तदेह--स्सबस्तिदत्तो वृतरानयुक्तः। पिबेज्जलं शीतलमत्यनल्यं । जलोदरं तत्कुरुते यथार्थम् ॥ १३६ ॥
भावार्थ:-जिस को, वमन व विरेचन कराया हो, बस्ति प्रयोग किया हो, घृत आदि स्नेह जिसने पी लिया हो अर्थात् स्नेहन क्रिया की हो, यदि वह उन हालतों में, ठण्डा जल, अत्यधिक पीयें तो, निश्चयसे उसे जलोदर रोग उत्पन्न होता है
जलोदर लक्षण! महज्जलापूर्णधृतिप्रकल्पं । प्रयते क्षुभ्यति विस्तृतं तत् । सचातुरः कश्यति मुद्यतीह । पिपामुरादारविरक्तभावः ॥ १३७ ॥
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