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महामयाधिकारः ।
( २२५ )
इसका नाम महानाराच घृत है । इस के सेवन से, शीघ्र त्रिरंचन होता है । इसलिये सर्व उदररोग, अष्ट लिका, कुष्ट, गुल्म, अपरमार भयंकर उन्माद और मठापयुक्त रोगीयों के यह अत्यंत हितकर है ॥ १६- ॥१६१ ॥
मूत्रवर्तिका ।
समस्तसंशाधन भेषजैस्समैः । कदुप्रकारलवणैवां जलैः ॥ महातरुक्षीरयुतैस्सुसाधितै । महामयध्ना वरमुत्रवर्तिका ॥
भावार्थ:--सर्व प्रकार के पीपल आदि संशोगन औषधियां (विरेचन निरूह कारक ) कटु रसयुक्त पंचलवण इनको गोमूत्र व थोहरके दूध के साथ पीसकर, बत्ती बनावें, इसका नाम मूत्रवर्तिका है । इसको गुद में रखने से, उदररोग नाश होत है ॥ १६२ ॥
१६२ ॥
द्वितीय वर्तिका |
संशोधनद्रव्ययुक्तस्सुसपै- स्संसंघवक्षारगणानुमिश्रितः ॥
कटुत्रिक मूत्रफलाम्लेपपिते। विधीयते वर्तिरियं महोदरे ।। १६३ ।। भावार्थ:-शोधनद्रव्य, सरसौ, सैंधानमक, क्षारवर्ग ( यवक्षार, सज्जीक्षार आदि पूर्वकथित ) त्रि+टु इनको गोमूत्र, व अम्ल पदार्थ के साथ पीसकर बत्ती बनावे और गुदा में रखें तो वह महोदर रोग में उपयोगी है ॥ १६३ ॥ वर्तिका प्रयोगविधि |
गुदे विलिप्ते तिलतैलधवैः । प्रतिवर्ति च विधाय यत्नतः ॥ जयेन्महानाहमिहोदराश्रितान् । क्रिमीन्मरुन्मूत्ररोपरोधनम् ॥ १६४ ॥
भावार्थ:-- गुदस्थान में नमक से मिश्रित तिरके तेलको टेपनकर, उपरोक्त बको भी लेपन करें। फिर ( इन दोनों को चिकना बनाकर ) उसे गुदा के अंदर प्रवेश करना चाहिये । जिससे, उदर में आश्रित, आध्मान ( अफराना ) क्रिमि बात और मल मूत्रावरोध दूर होता है । अर्थात् आम्मान, महोदर, इन रोगोंमें रहने वाले क्रिमिव बायुविकार एवं मल मूत्रावरोध आदि दूर होते हैं ॥१६४॥
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तदाशु दूष्यदरिणं परित्यजे-- द्विषाणि वा सेवितुमस्य दापयेत् ॥ कदाचिदेवाशु च रोगनिवृति- भवेत्कदाचिन्मरणं यथासुखम् ॥१६५॥
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