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________________ (१८१) , कल्याणकारके वैद्यको पास रखनेका फल. स च कुरुते स्वराज्यमाधकं सुखभाक्सुचिरं । सकलमहामहीवलयशत्रुनृपप्रलयः ।। स्वपरसमस्तचक्ररिपुचक्रिकया जनितं । विविधविषोपसर्गमपहृत्य महात्मतया ॥ ३ ॥ भावार्थ:-वह समस्त भूमण्डलके राजावों के लिये प्रलय के रूप में रहनेवाला राजा अपने शत्रुमण्डल के द्वारा प्रयुक्त समस्त विषोपसर्ग को परास्त कर अपने प्रभाव से चिरकाल तक अपने राज्य को सुखमय बना देता है ॥ ३ ॥ __राजा के प्रति वैद्यका कर्तव्य. भिषगपि बुद्धिमान् विशदतद्विषलक्षणवित् । सुकृतमहानसादिषु परीक्षितसर्वजनः । सनतमिहाप्रमादचरितः स्वयमन्यमनो-- ॥ वचनकृतेंगितैः समभिवीक्ष्य चरेदचिरात् ॥ ४ ॥ भावार्थ:-विषप्रयोक्ता के लक्षण व विषलक्षण को विशद रूपसे जाननेवाले बुद्धिमान वैद्य को भी उचित है कि वह अच्छे दिग्देश आदि में शिल्प शास्त्रानुसार निर्मित, सर्वोपकरण सम्पन्न रसोई घर आदि में रसोईया व अन्य परिचारकजनोंको अच्छीतरह परीक्षा कर के रखें। स्वयं हमेशा प्रमादरहित होकर, विषप्रयोग करने वाले मनुष्य का मन, कार्योकी चेष्टा व आकृति आदिकों से उस को पहिचानें और प्रयुक्त विष का शीघ्र ही प्रतीकार कर के राजा की रक्षा करें ॥ ४ ॥ . विषप्रयोक्ताकी परीक्षा. . हसति स जल्पति क्षितिमिहालिखति प्रचुरं । विगतमनाच्छिनत्ति तृणकाष्टमकारणतः ॥ भयचकितो विलोकयति पृष्टमिहात्मगतं । न लपति चीत्तरं विरसवर्णविहीनमुखम् ॥ ५॥ इति विपरीतचेष्टितगणैरपरैश्च भिष--। ग्विषदमपोह्य सान्नमखिलं विषजुष्टमपि ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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