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विषरोगाधिकारः ।
(१८०)
अथ एकोनविंशः परिच्छेदः
अथ विषरोगाधिकारः।
मंगलाचरण व प्रतिज्ञा. त्रिभुवन सद्गुरुं गुरुगुणोन्नतचारुमुनि- । त्रिदशनरोरगार्चितपदांबुरुहं वरदं ।। शशिधवलं जिनेशमभिवंद्य विषापहरं ।
विषमविषाधिकारविषयककथा क्रियते ॥ १ ॥ भावार्थ:--तीन लोकके हितैषी गुरु, उत्तमोत्तम गुणोसे युक्त मुनिगण, देव, मनुष्य, धरणेद्र आदिसे पूजित चरण कमल जिनका, जो भव्योंकी इच्छा को पूर्ति करनेवाले हैं, चंद्रके समान उज्वल हैं, और विषयविषको अपहरण करनेवाले हैं ऐसे श्री जिनेंद्र भगवंत को नमरकार कर अब भयंकर विषसंबंधी प्रकरण का निरूपण किया जाता है ॥१॥
राजा के रक्षणार्थ वैद्य. नृपतिरशेषमंत्राविषतंत्राविदं भिषजं । कुलजमलोलुपं कुशलमुत्तमधर्मधनं ॥ चतुरुपधा विशुद्धमधिकं धनबंधुयुतं ।
विधिवदमुं विधाय परिक्षितुमात्मतनुम् ॥ २ ॥ भावार्थ:-जो राजा अपनी रक्षा करते हुए सुखसे जीना चाहता है यह अपने पास अपने शरीर के रक्षण करने के लिये समस्त मंत्रा व विषतंत्राको जाननेवाले, कुलीन, निर्लोभी, समरत कार्य में कुशल उत्तम धर्मरूपी धनसे संयुक्त,हरतरहसे उत्तम व्रत नियमादिकसे शुद्ध, अधिक धन व बंधुवोंसे युक्त वैद्य को योग्य रीतिसे रखें ॥ २ ॥
१ राजा के द्वारा पराजित शत्रुगग, आने कुकृत्योंसे राजाद्वारा दंडित व अपमानित मनुष्य किसीपर किसी कारण विशेष से राजा रुष्ट हो जावे वे, अथवा ईद्वेषादिसे युक्त. राजा के कुटुम्वी वर्ग, ऐसे ही अनेक प्रकार के मनुष्य अवसर पाकर राजाको विषप्रयोग से मार डालते हैं। कभी दुष्ट स्त्रियां अपने सौभाग्य की इच्छा से अर्थात् वशीकरण करने के लिये नानाप्रकार के विषयुक्त दुर्योगों को प्रयुक्त करती हैं। इन विषबाधाओं से बचने के लिये विषतंत्रप्रवीणवैद्य को राजा को अपने पास रखना पडता है।
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