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________________ (६४८) कल्याणकारके ... दंतशुद्धि किया हो ऐसे, समय में मनुष्य को प्रतिदिन प्रायोगिक धूमका सेवन करना चाहिये ॥ ४३ ॥ अष्टासु चाप्यवसरेषु हि दोषकोपः साक्षाद्भवेदिति च तन्मशमैकहैतुः । धूमो निषेव्य इति जैनमते निरुक्तो वाक्यश्च तेन विषदाहरुजाप्रशांतिः॥४४ भावार्थ:----उपर्युक्त अठ अवसरो में दोषों का प्रकोप हुआ करता है। इस लिये उन दोषों को शांत करने के लिये धूम का सेवन करना चाहिये इस प्रकार जैन मत में कहा है ॥ ४४ ॥ __ धूमसेवन का गुण. तेनेंद्रियाणि विमलानि मनःप्रसादो । दाय सदा दशनकेशचयेषु च स्यात् ॥ श्वासातिकासवमथुस्वरभेदनिद्रा - । काचप्रलापकफसंस्रवनाशनं स्यात् ॥ ४५ ॥ भावार्थ:-उस धूपन प्रयोग से इंद्रियोंमें निर्मलता आती है, मन में प्रसन्नता होती है, दंत व केशसमूह में दृढता आती है । श्वास, कास, छींक, वमन, स्वरंभग, 'निद्रा रोग, काच [?] प्रलाप, कफस्राव ये रोग दूर होते हैं ॥ ४५ ॥ तंद्रा प्रतिश्यायनमत्र शिरोगुरुत्वं । दुगंधमाननगतं मुखजातरोगान् । धूमो विनाशयति सम्यगिह प्रयुक्तो । . योगातियोगविपरीतविधिप्रवीणैः ॥ ४६ ॥ भावार्थ:---आलस्य, जुखाम, शिरके भारीपना, मुखदुर्गध व मुखगत अनेक रोगों को योग अतियोग व अयोग को जाननेवाले वैद्यों के द्वारा विधिपूर्वक प्रयुक्त धूम अवश्य नाश करता है ॥ ४६॥ __ योगायोगातियोग. योगी भवत्यधिकरोगविनाशहेतुः। साक्षादयोग इति रोगसमृद्धिकृत्स्यात् ॥ योग्यौषधैरतिविधानमिहातियोगः । सर्वोषधप्रकटकर्मसु संविचिंत्यः ॥ ४७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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