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________________ सर्वोषधकर्मव्यापच्चिकित्साधिकारः। (६४९) भावार्थ:-जो धूम प्रबल रोग की शांति के लिये कारणभूत है अर्थात् जिस के सेवन से रोग की ठीक २ शांति हो जाती है, उसे योग या सम्यग्योग कहते हैं। जिस के प्रयोग से रोग बढ़ जाता है उसे अयोग और योग्य औषधियों से अधिक प्रमाण में धूम का प्रयोग करना उसे अतियोग कहते हैं । इन योग, अयोग, अतियोगों को प्रत्येक औषधिकर्म में विचार करना चाहिये । ४७॥ धूम के अतियोगजन्य उपद्रव. धूमे भवत्यतितरामतियोगकाले कर्णध्वनिः शिरसि दुःखमिहात्मदृष्टे । दौर्बल्यमप्युरुचितं च विदाहतृष्णा संतपयेच्छि रसि नस्यघृतैर्जयेत्तम् ॥४८॥ भावार्थः-धूम के अत्यधिक अयोग होने पर कर्ण में शब्द का श्रवण होते ही रहना, शिरोवेदना, दृष्टिदुर्बलता, अरुचि, दाह व तृषा उत्पन्न होती है। उसे शिरोतर्पण, नस्य व घृतों के प्रयोग से जीतना चाहिये ॥ १८ ॥ धूमपान के काल. प्रायोगिकस्य परिमाण मिहास्रपातः शेषेषु दोषनिसृतेरवधिविधेयः। पीत्वागदं तिलसुतण्डुलजां यवागूं धूमं पिबेद्वमनभेषजसंप्रसिद्धम् ॥४९॥ भावार्थ:-- आंखो में आंसू आने तक प्रायोगिक धूमका प्रयोग करना चाहिये यही उस का प्रमाण है। बाकी के धूमों का प्रयोग दोषों के निकलनेतक करना चाहिये । धमन औषधियों से सिद्ध बामनीय धूम को अगद, तिल व चावल से सिद्ध यवागू को पीकर पीना चाहिये ॥ ४९ ॥ गंडूष व कवलग्रहवर्णन. धूमं विधाय विधिवन्मुखशोधनार्थ गण्डूपयोगकब लग्रहणं विधास्ये । गण्डूषमित्यभिहितं द्रवधारणं तच्छुप्कौषधैरपि भवेत्कालग्रहाख्यः ॥५०॥ भावार्थः- विधिपूर्वक धूम प्रयोग का वर्णन कर के अब मुखकी शुद्धिके लिये गण्डूष (कुरला) प्रयोग व कवल ग्रहण का वर्णन करेंगे। मुखमें द्रवधारण करने को गण्डूष कहते है । कबलग्रहण में शुष्क औषधियोंका भी वारण होता है ॥ ५० ॥ १. कोई तो जिस से रोग शान नहीं होता है, उसे अयोग कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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