SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 743
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्याणकारके (६५०) गंडूष धारणविधि. सिद्धार्थकत्रिकटुकत्रिफलाहरिद्रा- । कल्कं विलोड्य लवणाम्लमुखोष्णतोयैः॥ मुस्विन्नकंठनिजकर्णललाटदेश-। स्तं धारयेवमतः परिकीर्तयत्सः ॥ ५१ ॥ भावार्थ:-सब से पहिले रोगी के कंठ, कर्ण व ललाट प्रदेशमें स्वेदन प्रयोग करना चाहिये । बादमें सफेद सरसों, त्रिकटु, त्रिफला व हलीको अच्छीतरह पीसकर ( कल्क तैयार कर के ) उसे लवण, आम्ल व मंदोण पानी में घोल लेवें और उस द्रव को मुखमें धारण करना चाहिये । उसे कबतक घाण करना चाहिये ? इसे आगे कहेंगे ॥ ५१ ॥ गंडूषधारण का काल. यावत्कफेन परिवेष्टितमौषधं स्यात्तावन्मुख च परिपूर्णमचाल्यमेतत् । यावद्विलोचनपरिप्लवने स्वनासासावं भवेदतितरां विसृजेत्तदा तत् ॥५२॥ भावार्थ:-जब तक मुख में स्थित औषधि कफसे नहीं भरजाय तब तक मुख को बिलकुल हिलाना नहीं चाहिये। और जब नेत्र भीग जाय [ नेत्र में पानी भर जाय] एवं नासिकासे स्राव होने लग जाय तब औषधिको बाहर उगलना चाहिये ।। ५२॥ . गंडूषधारण की विशेषविधि. अन्यद्विगृह्य पुनरप्यनुसंक्रमेण संचारयेदथ च तद्विसृजेद्यथावत् । दोष गते गतवतीह शिरोगुरुत्वे वैस्चर्यमाननगतं सुविधास्य यत्नात्॥५३॥ अन्यं न वार्यमधिकं गलशोषहेतुस्तृष्णाग्रुपद्रवनिमित्तमिति प्रगल्भैः । धार्या भवंति निजदोषविशेषभेदात् क्षाराश्लतेलघृतमूत्रकषायवर्गाः ॥५४॥ ..... भावार्थ :-----पूर्वोक्त प्रकार से पुनः उस द्रव को लेकर मुख में धारण करना चाहिये । पुनः विधि प्रकार बाहर छोडना चाहिये । दोष निकल जावे, शिर का भारीपना ठीक हो जावे, स्वरभंग व अन्य मुखगतरोग शांत हो जाये तबतक यत्नपूर्वक इस प्रयोग को करे । इस प्रकार रोग शांत हो जाने पर फिर दूसरे द्रव को अधिक धारण न करे । अन्यथा गलशोषण, तृषा आदिक उपद्रव होते हैं, ऐसा विद्वज्जनों ने कहा है । एवं दोषभेद के अनुसार क्षार, आम्ल, तैल, घृत, मूत्र व कपाय वर्ग औषधियों के द्रव को धारण करना चाहिये ॥ ५३ ॥ १४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy