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________________ सर्वोषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः। (६५१) गंडूष के द्रव का प्रमाण और कवलयिधि. गंडूषसद्रवगतं परिमाणमत्र प्रोक्तं मुखामिति नान्यदतोस्ति किंचित् । पूर्णे मुखे भवति तद्वमत्र चाल्यं हीनं न दोषहरमत्र भवेदशेषम् ॥५५॥ भावार्थ:-गंडूष के द्रव का प्रमाण मुखकी अर्ध मात्रा [मुह के आधे में जितना समावें उतना ] में बतलाया है | यदि द्रव से मुख को पूर्ण भर दिया जाय अथवा मुह भर द्रव धारण किया जाय तो, उसे मुख के अंदर इधर उधर न चला सकने के कारण वह संपूर्ण दोषों को हरण करने में समर्थ नहीं होता है ॥ ५५ ॥ तस्मान्मुखार्धपरिमाणयुतं द्रवं तं निश्शेषदोपहरणाय विधेयमेवं । शुष्कौषधैश्च कवलं विधिवद्विधाय संचयतां हरणमिच्छदशेषदोषम् ॥५६॥ भावार्थ:-इप्स कारण से सम्पूर्ण दोषों को हरण करने के लिये मुख के अर्ध प्रमाण द्रव धारण करना चाहिये। एवं सदोषों को हरण करने की इच्छा से, शुष्क [ सूखे ] औषधियों से शास्त्रोक्त विधि से कवल धारण कर के उसे चबावे ॥ ५६ ॥ ___ नस्यवर्णन प्रतिज्ञा व नस्य के दो भेद. एवं विधाय विधिवत्कबलग्रहाख्यं नस्यं ब्रवीमि कथित खलु संहितायाम्। नस्यं चतुर्विधमपि द्विविधं यथावत् यत्स्नेहनार्थमपरंतु शिरोविरेकम्॥५७॥ भावार्थः- इस प्रकार विधिपूर्वक गण्डूष व कबल ग्रहण को मिरूपणकर अब आयुर्वेदसंहिता में प्रतिपादित नस्यप्रयोग का कथन करेंगे। यद्यपि नस्य चार प्रकार का है । फिर भी मूलतः स्नेहन नस्य व शिरोविरेचन नस्य के भेदसे दो प्रकार है॥५॥ स्नेहन नस्य का उपयोग. _ यत्स्नेहनार्थमुदितं गलरक्तमूर्धास्कंधोरसां बलकरं वरदृष्टिकृत्स्यात् ।। वाताभिघातशिरसि स्वरदंतकेशश्मश्रुप्रशातखरदारुणके विधेयम् ॥१८॥ भावार्थ:-- स्नेहन नस्य कंट रक्क मस्तक कंया और छाती को बल देने वाला है आखों में तेजी लानेवाला है । वात से अभिघातित [पीडित ] शिर [शिरो रोग ] में, चलदंत, केश [ बाल ] व मछ गिरने में, कठिन दारुण नामक रोग में इस स्नेहन नस्य का प्रयोग करना चाहिये ॥ ५८ ॥ - स्नेहननस्य का उपयोग. . कर्णामयेषु तिमिरे स्वरभेदवनशोषेऽप्यकालपलिते वयबोधनेऽपि । पित्तानिलप्रभवचक्रगतामये गुग्नेहनाख्यमधिकं हितकृन्नराणाम् ॥ ५९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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