SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 745
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्याणकारके भावार्थ:---कान के रोगो में, तिमिर रोग में, स्वरभंग में, मुखशोष में केश पकने में, आयु बढाने में एवं पित्त व वात विकारसे उत्पन्न समस्त मुखगत रोगो में, इस स्नेहन नस्य का उपयोग करना चाहिये, जो कि मनुष्यों को अत्यंत हितकारी है ॥५९॥ विरेचननस्य का उपयोग व काल. यत्स्याच्छिरोगतविरेचनमूर्ध्वजत्रु श्लेष्मोद्भवेषु बहुरोगचयेषु योज्यम् । नस्य द्वयं विधिमभुक्तवतां प्रकुर्याद्यभ्रे स्वकालविषये करतापनाद्यैः ॥६०॥ भावार्थ:-विरेचन नस्य को ऊर्ध्वजत्रुगत, हंसली के हड्डी के ऊपर के [ गला नाक आंख आदि स्थानगत ] नानाप्रकार के कफजन्य रोग समूहों में प्रयोग करना चाहिये । इन दोनों नस्यों को भोजन नहीं किये हुए रोगी पर जिस दिन आकाश बादलों से आच्छादित न हो, और दोषानुसार नस्य का जो काले बतलाया गया है उस समय, हाथ से तपाना इत्यादि क्रियाओं के साथ २. प्रयोग करना चाहिये ॥ ६०॥ स्नेहननस्य की विधि व मात्रा. सुस्विनगंडगलकर्णललाटदेशे किंचिद्विलंबित यथानिहितोत्तमांगे। उन्नामिताग्रयुतसद्विवरद्वयेऽस्पिन्नासापुटे विधिवदत्र सुखोष्णबिंदून् ॥ ६१॥ स्नेहस्य चाष्टगणना विहितानि दद्यात् प्रत्यकशोऽत्र विहिता प्रथमा तु मात्रा। अन्या ततो द्विगुणिता द्विगुणक्रमेण मात्रायं त्रिविधचारुपुटषु दद्यात्॥६२ भावार्थ:-कपोल, गला, कान, ललाटदेश [ माथे के अग्रभाग ] को [ हाथ को तपा कर | स्नेदन करे और मस्तक को इस प्रकार रखें कि मस्तक नीचे की ओर झुका हुआ और नाक के दोनों छेद ऊपर की ओर हो, इस प्रकार रखकर एक २ नाक के छेदों में सुखोष्ण [ सुहाता हुआ वुछ गरम ] तैल के आठ २ बिन्दु ओं को विधि प्रकार [ रुई आदि से लेकर ] छोडें । यह सोलह बिन्दु स्नेहन नम्य की प्रथममात्रा है । द्वितीय मात्रा इस से द्विगुण है । तृतीय मात्रा इससे भी द्विगुण है । इस प्रकार तीन प्रकार की तीन मात्राओं को [ दोषों के बलाबल को देखते हुए आवश्यकतानुसार ] नाक के छेदों में डाले ॥ ६२ ॥ ६१ ।। १. जो अन्न का काल है वही नस्य का काल है । २. तर्जनी अंगुली के दो पर्व तक स्नेह में डुबो देवें । उस से जितने स्नेह का मोटा बिंदु गिरे उसे एक बिंदु जानना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www.jainelib
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy