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________________ सर्वोषधक व्यापचिकित्साधिकारः । (६५३) प्रतिमर्शनस्य. सुस्नेहनार्थमुपदिष्टमिदं हि नस्य प्रोक्तं तथा प्रततसत्मतिमर्शनं च। तत्र प्रतीतनवकालविशेषणेषु कार्य यथाविहिततत्प्रतिमर्शनं तु ॥ ६३ ॥ भावार्थ:--उपर्युक्त नस्य, स्नेहन करने के लिये कहा गया है। इसी स्नेहन नस्य का एक दूसरा भेद है जिस का नाम प्रतिमर्शनस्य है । इस प्रतिमर्शनस्यप्रयोग के नौ काल हैं। इन्ही नौ कालो में विधि के अनुसार प्रतिमर्श नस्य का प्रयोग करना चाहिये ॥ ६३॥ प्रतिमर्शनस्य के नौ काल प उस के फल. प्रातस्समुत्थितनरेण कृतेऽवमर्श सम्यग्व्यपोहति निशोपचितं मलं यत् । नासागताननगत प्रबलां च निद्रामावासनिर्गमनकालनिषेवितं तु ॥ ६४ ॥ वातातपप्रबलधूमरजोऽतिबाधां नासागतं हरति शीतमिहांबुपानात् (१)। प्रक्षालितात्मदशनेन नियोजितोऽयं दंतेषु दार्श्वमधिकास्यसुगंधिता च ॥६५ कुर्याद्रुजामपहरत्यधिको दिवातिमुप्तोत्थितेन च कृतं प्रतिमर्शनं तु । निद्रावशेषमथ तच्छिरसो गुरुत्वं संहत्य दोषमपि तं सुखिनं करोति ॥६६॥ भावार्थः-प्रातःकाल में उठते ही इस प्रतिमर्श नस्य का प्रयोग करें तो रात्रि के समय नासिका व मुख में संचित सर्व मल दूर होते हैं । एवं अत्यधिक प्रबल निद्रा भी दूर हो जाती है । घर से बाहर निकलते समय प्रतिमर्श का सेवन करे तो नाक संबंधी वात, धूप, धूम व धूलि की बाधा दूर होती है । दंतधावन [ दंतौन'] करने के बाद इस का प्रयोग करे तो दांत मजबूत हो जाती हैं । मुख सुगंधयुक्त होता है एवं [ दांत व मुख सम्बंधी ] भयंकर पीडायें नाश होती हैं । दिन में सोकर उठने के बाद इस प्रतिमर्श का प्रयोग करें तो निद्रावशेष, शिरोगुरुत्व एवं अन्य अनेक दोषों को नाश कर उस मनुष्य को सुखी करता है ॥ ६४ ॥६५॥६६॥.. . १. स्नेहन नस्यका दो भेद है एक मर्श और दूसरा प्रतिमर्श, इसे अवमर्श भी कहते हैं। इस श्लोक के पहिले के श्लोको में जिस स्नेहन नस्य का वर्णन है वह मर्शनस्य हैं । क्यों कि ग्रंथांतरो में भी ऐसा ही कहा है ॥ २. १ प्रातःकाल उठकर, २ घर से बाहर निकलते समय, ३ दंत धावन के बाद ४ दिन में सोकर उठने के पश्चात् , ५ म.र्ग चलनेके बाद, ६ मूत्र त्यागने के बाद, ७ वमन के अंत, ८ भोजनांत, ९ सायंकाल, ये प्रतिमर्श के नौ काल हैं। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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