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(६५४)
कल्याणकारके
पथश्रमाकुलनरेण नियोजितस्तु पंथश्रमं व्यपथ इत्यखिलांगदुःखम् । नित्यं सुमूत्रितवताप्यभिषेचितोऽयं सद्यः प्रसादयति नीरदमंगसंस्थम्॥६७| * भावार्थः-रास्ता चलकर जो मनुष्य थक गया हो उस के प्रति भी- प्रतिमर्श का प्रयोग करें तो संपूर्ण मार्गश्रम दूर होता है एवं शरीर की वेदना दूर होती है। रोज मूत्र त्यागने के बाद इस का प्रयोग करे तो शरीर में स्थित नीरद [मल ] को सद्य ही प्रसन्न [ दूर ] करता है ॥ ६७॥
बांते नरेऽपि गललग्नबलासमाशु निश्शेषतो व्यपहरत्यभिषेचितस्तु ।
भक्ताभिकांक्षणमपि प्रकरोति साक्षाच्छ्रोतोविशुद्धिमिह भुक्तवतावमर्शः॥६८ - भावार्थ:-मन कराने के बाद प्रतिमर्श का प्रयोग करे तो वह कंठ में लगे हुए कफ को शीघ्र ही पूर्णरूप से दूर करता है एवं भोजन की इच्छा को भी उत्पन्न करता है । भोजन के अंत में इस नस्य का सेवन करे तो स्रोतों की विशुद्धि होती है ॥ ६८॥
प्रतिमर्श का प्रमाण. सायं निषवितमिदं सततं नराणां निद्रासुखं निशि करोति सुखप्रषोधम् । प्रोक्तं प्रमाणमपि तत्पतिमर्शनस्य नासागतस्य च घृतस्य मुखे प्रवेशः॥६९॥
भावार्थ:-सायंकाल में यदि इसका सेवन करें तो उन मनुष्यों को रात्रिभर सुख निद्रा आती है। एवं सुखपूर्वक नींद भी खुलती है । स्नेह [ घृत ] नाक में डालने पर मुख में आजाय वही प्रतिमर्श नस्य का प्रमाण जानना चाहिये ॥ ६९ ॥
प्रतिमर्श नस्य का गुणअस्माद्भवेदिति च सत्पतिमर्शनात्तु वक्त्रं सुगंधि निजदंतसुकेशदादर्थ । रोगा स्वकर्णनयनानननासिकोत्था नश्युस्तथोर्ध्वगल जत्रुगताश्च सर्वे ॥७०॥
भावार्थः---इस प्रतिमर्शन प्रयोग से मुख में सुगांध, दंत व केशमे दृढता होती है एवं कर्ण, आंख, मुख, नाक में उत्पन्न तथा गला और जत्रु के ऊपर के प्रदेश में उत्पन्न समस्त रोग दूर होते हैं ॥ ७० ॥
शिरोविरेचन ( विरेचन नस्य ) का वर्णन. एवं मया निगदितं प्रतिमर्शनं तं वक्ष्याम्यतः परमरं शिरसो विरेकम् । नासागतं वदति नस्यमिति प्रसिद्धम् रूक्षौषधैरपि तथैव शिरोविरेकम्॥७१॥
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