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सौषधकर्मव्यापञ्चिकित्साधिकारः।
(६४७)
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चाहिये अर्थात् पीना चाहिये । प्रायोगिक धम को मुख व नाक से खींचना चाहिये । विरेचन धूम को नाक से, व वामक व कासन्न धूम को मुख से ही खींचना चाहिये ॥३९॥
धूम निर्गमन विधि. यो नासिकापुटगृहीतमहातिधूपस्तं छर्दयेन्मुखत एव मुखाशीतं । अप्याननेन विसृजेद्विपरीततस्तु नेच्छंति जैनमत शास्त्रविशेषण ज्ञाः ॥४०॥
भावार्थः---जिस धूम को नासिका द्वारा ग्रहण किया हो उसे मुख से बाहर उगलना चाहिये और जिसे मुख से ग्रहण किया है उसे मुख से उगलना चाहिये । इस से विपरीत विधि को जैनशास्त्र के जानकार महर्षिगण स्वीकार नहीं करते ॥४०॥
धूमपान के अयोग्य मनुष्य. मूच्छीमदभ्रमविदाहतपोष्णारक्तपित्तश्रमोग्रविषशोकभयमतताः । पाण्डुपमेहतिमिरो मरुन्महोदरोत्पीडिताः स्थविरवालविरिक्तदेहाः॥४१॥ आस्थापिताः क्षतयुता हरसि क्षता ये गर्भान्विताश्च सहसा द्रवपानयुक्ताः । रूक्षास्तथा पिशितभोजनभाजना ये ये श्लेष्महीनमनुजाःखलु धूमवाः ४२
भावार्थ:---जो मूर्छा, मद भ्रम, दाह, तृषा, उष्णता, रक्तपित्त, श्रम, भयंकर विषबाधा, शोक और भय से संतप्त [ युक्त ] हों, पाण्डु, प्रमेह, तिमिर, ऊर्चवात, व महोदर से पीडित हों, जो अत्यंत वृद्ध या बालक हों, जिसने विरेचन लिया हो, जिसे आस्थापन प्रयोग किया हो, क्षत [जखम] से युक्त हो, उरःक्षत युक्त हो, गर्भिणी हो, एकदम द्रवपान किया हुआ हो, मांस भोजन किया हो, एवं कफराहत हो, ऐसे मनुष्यों के प्रति धूमप्रयोग नहीं करना चाहिये ।। ४१ ॥ ४२ ॥
धूमसेवन का काल. स्नातेन चान्नमपि भुक्तवतातिमुवा बुद्धन मैथुनगतेन मलं विसृज्य ।। क्षुत्वाथ वांतमनुजेन च दंतशुद्धौ प्रायोगिकः प्रतिदिनं मनुजैनियोज्यः॥४३॥
भावार्थ:----जिसने स्नान किया हो, अन्न का भोजन किया हो, सोकर उठा हो, मैथुन सेवन किया हो, मल विसर्जन किया हो, छींका हो, वमन किया हो, और जो
१ किसी का मत है कि इस धूम को नाक से ही खीचना चाहिये ।
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