SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 695
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (६०२) कल्याणकारक । तत्रानिष्टफलप्रसिद्धमधिकं दोषोल्वणं तं पुनः । । सुस्नेहोग्रतरौषधैरतितरां भूयस्तथा वामयेत् ॥ ५६ ॥ ......भावार्थः-अधिक क्षुधा से पीडित मृदुकोष्ठ व तीक्ष्णग्निवाले मनुष्य को खिलाया हुआ वमनौषध पेट में रह कर अर्थात् पचकर नीचे की ओर चला जाता है। इस का अनिष्टफल प्रसिद्ध है अर्थात् इच्छित कार्य नहीं होता है एवं अधिक दोषों का उद्रेक होता है । ऐसे मनुष्य को अच्छी तरह से स्नेहन कर अत्यंत उग्र वमनौषधियों से बमन कराना चाहिए ॥ ५६ ॥ ___ आमदोषस अर्धपीत औषधपर योजना. आमांशस्य तथामवद्विरसबीभत्सप्रभूते तथा । कृत्वा तत्पतिपक्षभेषजमलं संशोधयेदादरात् ॥ एवं चार्धमुपैति चेदतितरां मृष्टेष्टसद्भेषजै- । रिष्टैरिक्षुरसान्वितैः सुरभिभिः भक्ष्यैस्तु संयोजयेत् ॥ ५७ ॥ भावार्थ:---आमदोष, आमवत् औषध की विरसता, बीमत्सदर्शन, रुचि आदि कारणोंसे पूर्ण औषध न पिया जासके तो उसपर यह योजना करनी चाहिये । सब से पहिले उस रोगीको आमदोष नाशक प्रयोग कर चिकित्सा करें । एवं बादमें संशोधन ( वमन व विरेचन ) प्रयोग करें। साथ ही रुचिकर, इष्ट व सुगंधि भक्ष्य पदार्थो के साथ अथवा ईखके रस के साथ औषध की योजना कर उसकी बीभत्सता नष्ट करें ॥ ५७ ॥ विषमऔषध प्रतीकार.. ऊवीधो विषमौषध परिगतं किंचियवस्थापयन् । शेषान्दोषगणान्विनेतुमसमर्थस्सन्महादोषकृत् ॥ मृच्छी छर्दिमरोचकं तृषमथोद्गाराविशुद्धिं रुजां । हृल्लासं कुरुते ततोऽहिमजलैयान्वितैमियेत् ॥ ५८ ॥ . भावार्थ:- ऊर्ध्व शोधन व अधो शोधन के लिये प्रयुक्त विषमऔषधि यदि सर्व दोषों को अपहरण कर गुणोंकी व्यवस्थापन करने के लिये असमर्थ हो जाय तो वह अनेक महादोषों को उत्पन्न करती है। मूर्छा, वमन, अरोचक, तृषा, उद्गार, अशुद्धिता पीडा, उपस्थित वमनत्व (वमन होनेकी तैयारी, जी मचलना) आदि रोग उत्पन्न होते हैं । उनको उग्रा [वचा } से युक्त गरमजल से वमन कराना चाहिये ॥ ५८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy