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भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः। (६०३) सावशेषऔषध, व जीर्णऔषध का लक्षण व उसकी चिकित्सा.
यत्स्यादौषधशेषमप्यतितरां तत्पाचनैः पाचये- । दल्पं चाल्पबलस्य च प्रचलिताशेषोरुदोषस्य च ॥ तत्रासम्यगोविरेचितनरस्याणर्जलैामयेत ।
तीक्ष्णाग्नेरपि भक्तवत्परिणतं तच्चाशु संशोधयेत् ॥ ५९॥ 'भावार्थ:---पेट में औषध शेष रह जावे, दोष भी अल्प हो, रोगी अल्पबल वाला हो तो उसे पाचनक्रिया द्वारा पचाना चाहिये । यदि अवशेष औषधवाले का दोष अधिक हो, प्रचलित ( प्रधावित ) हो, [ रोगी भी बलवान हो ] विरेचन भी बराबर न हुआ हो तो उसे गरम पानी से वमन कराना चाहिये । तीक्ष्ण अग्निवाले मनुष्य के [ थोडा, व स्वल्प गुण करनेवाला औषध भोजन के सदृश पच जाता है, इस से उद्रित दोषों को समय पर नहीं निकाले तो अनेक रोगों को उत्पन्न करता है व बल का नाश करता है ] ऐसे जीर्णऔषध को, शीघ्र ही शोधन करना चाहिये ॥ ५९॥
अल्पदाहरण, वातजशूलका लक्षण, उसकी चिकित्सा. अल्पं चाल्पगुणं च भेषजमरं पीतं न निश्शेषतो । दोषं तद्वमनं हरेच्छिरसि रुग्व्याधिप्रवृद्धिस्ततः ॥ हल्लासश्च भवेदिहातिबलिनं तं वामयेदप्यधः । शुद्धादुद्धतगौरवं मरुदुरोरोगाद्गुदे वेदना ॥ ६० ।। तं चाप्याशु विरेचयेन्मृदुतरं तीव्रौषधिश्शोधनैः । स्नेहादिक्रियया विहीनमनुजस्यात्यंतरूक्षौषधम् ।। स्त्रीव्यापररतस्य शीतलमरं दत्तं मरुत्कोपनं ।
कुर्यात्तत्कुरुतेऽतिशूलमथवा विभ्रांतमूर्छादिकम् ॥ ६१ ॥ भावार्थः- अल्पगुणवाले औषधको थोडे प्रमाण में पीने से जो वमन होता है वह संपूर्ण दोषों को नहीं निकाल पाता है। जिस से शिर में पीडा व व्याधि की वृद्धि होती है। फिर जी मचल आती है । ऐसा होने पर बलवान् रोगी को अच्छी तरह वमन कराना चाहिए । इसी प्रकार विरेचन भी संपूर्ण दोषों को निकालने में समर्थ न हुआ तो उस से दोषों का उद्रेक हो कर शिर में भारीपन, वातजरोग, उरोरोग व गुदा में वेदना ( कर्तनवत् पीडा ) उत्पन्न होती है। ऐसी हालत में यदि रोगी मृदुशरीरवाला हो तो तीक्ष्णशोधन औषधियों द्वारा विरेचन कराना चाहिए ।
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