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________________ (४८३) कल्याणकारके भावार्थ:-भोजन द्रव्य प्रस्तुत होनेपर उस से एक दो प्रास बलि के रूप में बाहर निकाल कर रख देना चाहिये । यदि वह विषसंयुक्त हो तो उस में मक्खियां आकर बैठ जावें, कौवा आदि प्राणि खाजावें तो वे शीघ्र मर जाते हैं । उस अन्न को अग्नि में डालनेपर यदि " नटनट " " चटचट " शब्द करे, उससे मोर के गले के समान नीलवर्ण, व दुःसह [सहने को अशक्य] धुंवां निकलें (धूवा शीघ्र शांत नहीं होकर ज्योति भिन्न भिन्न होवें) तो समझना चाहिये कि वह अन्न विषयुक्त है । क्यों कि ये लक्षण विषयुक्त होने पर ही प्रकट होते हैं ॥ ८ ॥ परोसे हुए अन्न की परीक्षा व हातमुखगत विषयुक्त अन्न का लक्षण. विनिहितभोजनोर्ध्वगतबाष्पयुतालियुगं- । भ्रमति स नासिकाहृदयपीडनमप्यधिकम् ॥ करधृतमन्नमाशु नखशातनदाहकरं। मुखगतमश्मवच्च कुरुते रसनां सरजाम् ॥ ९॥ भावार्थ:-विषयुक्त अन्न को थाली आदि में परोसा जावें उस से उठी हुई भाप यदि लग जायें तो आखों में भ्रांतता होती है । नाक व हृदय में अत्यधिक पीडा होती है । उस अन्न को [ खानेको ] हाथ से उठावें तो फोरन नाखून फटने अथवा गिरने जैसा मालूम होता है और हाथमें जलन पैदा होती है । विषयुक्त अन्न ( प्रमाद आदिसे खाने में आजावें ) मुंह पर पहुंचते ही जीभ पत्थर के समान कठोर व रसज्ञान शून्य हो जाता है। और उस में पीडा होती है॥९॥ आमाशय पक्काशयगत विषयुक्त अन्नका लक्षण. हृदयगतं तु प्रसेकबहुमोहनदाहरुजं । वमनमहातिसारजडताधिकपूरणताम् ॥ उदरगतं करोति विषमिंद्रियसंभ्रमतां । द्रवगतलक्षणानि कथयामि यथागमतः ॥ १० ॥ भावार्थ:-वह विषयुक्त अन्न हृदय [ आमाशय ] में जावें तो अधिक लार टप १ आजकल भी बहुत से भोजनके पहिले एक ग्रास अन्न को अलग रखते हैं। बहुत से जगह जीमने को बैठने के पहिले बहुत से ग्रासोको मैदान व ऊंच स्थानों में रखते हैं। जबतक कौवा आदि नहीं खाघे भोजन नहीं करते हैं । यदि पितरोंके उद्देश से ऐसा करें तो भले ही मिथ्यात्व माने, लेकिन विषपरीक्षाके उद्देश से करें तो वह मिथ्यात्व नहीं है। इसलिये जैन धर्मावलम्बियों को भी यह विधेय विधान है । हेय नहीं । इससे ऐसा सिद्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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