SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रावर्णनम् मांसरज्जु आदि की गणना । द्वे मांसरज्जु त्वच एव सप्त । स्रोता तथाष्टौ च यकृतप्लिहाः स्युः । आमोरुपक्काशयभूत नित्यं । स्थूलत्रपंक्तिः खलु षोडशैव ॥ ४ ॥ 1 भावार्थ — मांसरज्जु (बांधनेवाली मांसरज्जु) दो हैं । त्वचा [ चर्म] सात हैं । स्रोत आठ हैं । एवं यकृत् व (जिगर) प्लिहा (तिल्ली ) एक एक हैं । तथा एक आमाशय (खाया हुआ कच्चा अन्न उतरनेका स्थान जिसको मेदा भी कहते हैं) और पक्काशय (अन्नको पकाने वाला स्थान) के रूप में रहनेवाली स्थूल (बृहद् ) आंतडयों की पंक्ति सोलह हैं ॥ ४ ॥ मर्मादिककी गणना । सप्तोत्तरं मर्मशतं प्रदिष्टं । द्वाराण्यथात्रापि नवैव देहे । लक्षण्यशीतिश्च हि रोमकूपा । दोषात्रयस्थूणविशेषसंज्ञाः ॥ ५ ॥ ( ३१ ) भावार्थ:-- शरीर में एकसौ सात १०७ मर्म हैं । नौद्वारे ( दो आंख में, दो नाक में दी कान में, एक मुंह में, एक गुदा में और एक लिंग में ) हैं, अस्सीलाख रोम कूप ( रोमोंके छिद्र ) हैं । एवं स्थूण ऐसा एक विशेषनाम को धारण करनेवाले (वात, पित्त, कफ, नामक ) तीन दोष हैं ॥ ५ ॥ दंत आदिक की गणना । द्वात्रिंशदेवात्र च दंतपंक्तिः । संख्या नखानामपि विशंतिः स्यात् । मेदः सशुक्रं च समस्तुलुंग | प्रत्येकमेकांजलिमानयुक्तम् || ६ || भावार्थ:- इस शरीर में दांत बत्तीस ही रहते हैं अधिक नहीं, नखोंकी संख्या भी बीस है । मेद शुक्र व मस्तुलुंग इनके प्रत्येकके प्रमाण एक २ अंजली है ॥ ६ ॥ वसा आदिकका प्रमाण । सम्यक्त्रयोऽप्यंजलयो बसायाः । पित्तं कफश्च प्रसृतिश्च देहे । प्रत्येकमेकं षडिह प्रदिष्टा । रक्तं तथाधटॅकमात्रयुक्तंम् ॥ ७ ॥ १ – जिस स्थान पर, चोट आदि लगने से (प्रायः) मनुष्य मर जाता है उस स्थान विशेष को मर्म कहते हैं । २–मल आदि के बाहर व अंदर जाने का मार्ग. ( सूराक, वा छिद्र, ) ३ -- मेद आदि के जो प्रमाण यहां कहा है और आगे कहेंगे वह उत्कृष्ट प्रमाण है अर्थात् अधिकसे अधिक ( स्वस्थ पुरुषके शरीर में ) इतना हो सकता है । इसलिये स्वस्थ पुरुष व व्याधिग्रस्त के शरीर में इस प्रमाण में से घट बढ़ भी हो सकता है 1 ४- प्रसृति - ८ तोले. ५. आढक - २५६ तोले. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy