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महामयाधिकारः
( २१३ )
गोभिस्तथा श्रपि भक्षितांस्ता स्तदनित्यानतिमुमुक्ष्मतरं विचूर्ण्य । सोलानकर्णार्जुन शिशपानां । सालोदकेन सहितान् प्रपिवेत्स सक्थु ॥ १४५॥
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भावाथा - गेहू, रेणुकोमीन, जौ, इनको कूटकर छिलका निकाल कर शुद्धकर अच्छी तरहं सुखाल और रोमूत्र से चार र भावना देकर नये वर्तन में सुनना चाहिये । फिर उन का सूक्ष्म चूर्ण करें। मिलावा, याकुर्ची, भृंगराज [भांगरा ] अकोबा, नागरमोथा, वायविडंग इनकी समभाग लेकर, चूर्ण कर के उपरोक्त चूर्ण में मिलावें । इस का प्रमाण' उपरोक्त ( रोहू आदि के ) चूर्ण से चौथाई हिस्सा होना चाहिये । फिर इनको चरपरा कडुआ, कषाय, रस के द्वारा पीस कर इस सत्थू को साल विजयसार, अर्जुनं और ससिम की छाल के चूर्ण [ वृक्ष ) व साल के कपाय के साथ पीना चाहिये ॥ १०३ ॥ १०४ ॥ १०५ ॥ तानेव स
कण, कृत्वा विजातक महाप्रचूर्णमिश्रानः । भातकाद्योपसंप्रयुक्ता निवासनक्षितिप्रवृक्षकपाययुक्तान् ।। १०६ । संच्छर्करानामलका म्ललुंग- वेत्राम्लदाडिमलसचणकाम्लयुक्तान् । सारांघ्रिपकाथ संसैंधवांस्तांस्तांस्तान्पिवेदखिलमंदविकल्प एषः ॥ १०७ ॥ .
भावार्थ:- उन्हीं [ पूर्वकथित गोधूमादि ] सत्थूओं को उपर्युक्त प्रकार से तैयार कर के उस में त्रिजातक [ दालचिनी, इलायची तेजपाल ] सोट, और भिलावा आदि [[" उपरोक्त ] औषधियों को मिलाकर, नीम, विजयसार, अमलतास, इनके काढेसे भावना देवें फिर शक्कर, आंवला, खा बिजौरा निंबू, बेत, खड्डा अनार, चनेका क्षार, सेंधानमक मिलाकर और खेर के काढ़े के साथ, निःसंशय होकर पीयें ॥ १०६ ॥ १०७ ॥ तैरेव सक्तुप्रकरैविपक्कान् भक्ष्यानपूपसकलानि सपूर्णकोशान् । धानानुदं मानपिशष्कुलीका ही भक्षयेदखिलकुष्ठमहामयाचैः ॥ भावार्थ:- कुष्ठरोगकि लिये उपर्युक्त प्रकार के सत्यों के साथ 'पुआ, पोळी व पूरी शष्कुली आदि खानेको देना चाहिये ॥ १०८ ॥
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दंती त्रिवृच्चित्रकदेवदारु- पूतीकसत्रिकटुकत्रिफलास ॥धि ॥ प्रत्येकमेव कुमा। चूर्ण भवेदमलतीक्ष्णरजोऽर्धभागम् ॥ १०९ ॥ प्रागाज्यकुंभं पुनरग्निदग्धं । जंबूकपित्थसुर साम्रकमातुला- ॥ पत्रैर्विपकं परिषोतमंत - गोदकमरिचमागधिकाचिचूर्णैः ॥ ११० ॥ सच्छर्कभः परिमिश्रितैस्तै- लिप्तान्दर कुसुमवासित रूपितांतः ।। arie सूत्रम् त्वीजवधूर्णमिट क्षिपेत्तत् ॥१२॥
१०८ ॥
हुए भक्ष्य,
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