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( २१२ ) - कल्याणकारके
ऊवधिःशोधन । संशोधयेदृर्ध्वमधश्च सम्य -- रक्तस्य मोक्षणमपि प्रचुरं विदध्यात् । दोषेऽवशिष्टेऽपि पुनर्भवति । कुष्ठान्यतः प्रतिविधानपरो नरः स्यात् ||९|
भावार्थ:-तुष्ठरोगियों के शरीर वमन, विरेचन द्वारा अच्छीतरह शुद्ध करके रक्तमोक्षण भी खूब करना चाहिये । दोष यदि शेष रहे तो पुनः कुष्ठ होजाता है। इसलिये उसकी चिकिया पथोक्त विविसे करने में लीन होना चाहिये ॥ ९९ ॥ ."
कुष्ठ में बमन विरेचन रक्तमोक्षण का क्रम । पक्षादतः पक्षत एव वम्याः । कुष्टातुरान्वरविरंचन व मासात् ॥ मासाच्च तेषां विदर्धात रक्तं । निमोक्षयेदपि च षट्सु दिनेपु षट्स ।।१००॥
भावार्थ:-इसके बाद पंद्रह पंद्रह दिनमें वमन कराना चाहिये । तदनंतर एक २ मास के बाद तीक्ष्ण विरेचन देना चाहिये। छह २ दिन के बाद रक्तमोक्षण करना चाहिये । ॥ १० ॥
सम्यशिरश्शुद्धिमपीह कुर्या- । वैद्यस्त्रिभित्रिभिरहोभिरिहाप्रमादी । सर्वेषु रोगेष्वयमेव मार्ग- स्तत्साध्यसाधनविशेषविदां प्रकर्षः ॥१०१॥
भावार्थ:-इसी प्रकार वैद्य प्रमादरहित होकर प्रति तीन दिन में शिरोविरेचन कराना चाहिये । सम्पूर्ण कुष्ठरोग की यही चिकित्साक्रम हैं। साध्य साधन आदि विशेष बातोंको जाननेवाले वैद्योंको ( कुष्ठरोग के विषय में ) इसी मार्ग का अनुसरण करना चाहिये ।। १०१ ॥
कुष्ठप्रमेहोदरदुष्टनाडी -- स्थूलेषु शोफकफरोगयुतेषु मेद:- ॥ प्रायेषु भैषज्यमिहातिकार्य - मिच्छत्सु साधु कथयामि यथायोगैः ॥१०२
भावार्थ:---कुठ, प्रमेह, उदर रोग, नाडीव्रण, इन रोगों के कारण से जो स्थूल हैं, तथा, सूजन, कफरोग, मेदवृद्धि से संयुक्त हैं, और वे कृश होना चाहते हैं, अथवा उनको कृश करना जरूरी है उनकेलिय उपयुक्त, औषधियोंके प्रयोग कहेंगे १०२ गोमकान्रेणुयवान्यवान्या । क्षुण्णांस्तुपापहरणानतिशुद्धशुष्कान् । गोमूत्रकेणापि पुनः पुनश्च । संभावितानभिनवामलपात्रभृष्टान् ॥ १०३ ॥ भल्लातकावलाजमाकवाक । मुस्ताविडंगकृतचूर्णचतुर्थभागान् ॥ चूर्णीकुलानक्षपरिप्रमाणन् ! संयोजितान्झटुकतिक्तकषायपिष्टान् ॥१०४॥
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