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भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः।
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के द्वारा ही विरेचन करता है। वमन का औषध तो अपने प्रभावके द्वारा वमन करता है ] वमनौषध अपने गुणों के उत्कर्षसे अविपक्क [कच्चा ] दोषों को लेकर ऊपर जाता है । विरेचन का औषध पक दोषों को लेकर नीचे के भाग ( गुदा ) मे जाता है ॥ ४८॥
विरेचन के प्रकर्णि विषय. मंदाग्नेरतितीक्ष्णभेषजमिति स्निग्धस्य कोष्ठे मृदौ । दत्त शीघ्रमिति प्रयातमखिलान् दोषान्न संशोधयेत् ।। प्रातः पीतमिहौषधं परिणतं मध्यान्हवः शोधनं ।
निशेषानतिशोधयेदिति मतं जैनागमे शास्वते ॥ ४९ ॥ भावार्थ:---जिस का अग्निमंद हो ( क्रूर कोष्ट भी हो ) स्नेहन कर के उसे तीदण औषध का प्रयोग करना चाहिये । जिसका कोष्ट मृदु हो, [अग्नि भी दीप्त हो] उसे यदि तीक्ष्ण विरेचन देवे तो वह शीघ्र दस्त लाकर सम्पूर्ण दोषों को शोधन नहीं कर पाता है। प्रातःकाल पीया हुआ औषध, मध्यान्ह काल ( दोपहर.) तक पच कर सम्पूर्ण दोषों को शोधन कर दें ( निकाल दें ) तो वह उत्तम माना जाता है । ऐसा शाश्वत जिनागम का मत है ॥ ४९ ॥
दुर्बल आदिकों के विरेचन विधान. अत्यंतोच्छितसंचलानतिमहादोषान् हरेदल्पशः। क्षीणस्यापि पुनः पुनः प्रचलितानल्पान्मशम्याचरेत् ॥ दोषान् पकतरं चलानिह हरेत् सर्वस्य सर्वात्मना ।
ते चाशु क्षपयंति दोषनिचयाभिशेषतोऽनिर्दृताः॥ ५० ॥ भावार्थ:-क्षीण मानव के शरीर में दोष अत्यंत उद्रिक्त हो व चलित हों तो उन को थोडा२ व बार२ निकालना चाहिये। यदि चलित दोष अल्प हों तो उन्हे शमन करना चाहिये । दोष पक्व हों, चलित भी हों, तो उन सम्पूर्ण दोषोंको सर्वतोभावसे निकाल देना चाहिये (चाहे वह रोगी दुर्बल हो या सबल हो)। यदि ऐसे दोषोंको पूर्णरूपेण नहीं निकाला जावें तो वे शीघ्र ही, शरीर को नष्ट करते हैं ॥५०॥
____ अतिस्निग्धको स्निग्धरेचनका निषेध. यास्निग्धोऽतिपिवेद्विरेचनघृतं स्थानच्युताःसंचलाः । दोषाःस्नेहवशात्पुनर्नियमिताः स्वस्था भवंति स्थिरा ॥
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