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___ कल्याणकारके
तस्मात्स्निग्धतरं विरूक्ष्य नितरां मुस्नेहतः शोधये-।। ... दुध्द्तस्वनिबंधनाच्छिथिलिताः सर्वेऽपि सौख्यावहाः ॥ ५१ ॥
भावार्थ:-जो अधिक स्नेह पीया हुआ हो वह यदि विरेचन धृत[स्निग्धविरेचन] पावें तो उस का [ अति स्नेहनके द्वारा ] स्वस्थान से च्युत व चलायमान हुए दोष इस स्नेह के कारण फिर नियमित, स्वस्थ व स्थिर हो जाते हैं। इसलिये जो अधिक स्नेह (घृत तेल.दि चिकना पदार्थ) पीया हो उसे अच्छीतरह रूक्षित कर के, स्नेहन से विरेचन करा देना चाहिये ?) क्यों कि दोषोद्रेक के कारणोंको ही शिथिल करना अधिक सुखकारी होता है ।। ५१ ॥
संशोधनसम्बन्धी ज्ञातव्य बातें. एवं कोष्ठविशेषविद्विदितसत्कोष्ठस्य संशोधनं ।
दद्यादोपहरं तथाह्यविदितस्यालोक्य सौम्यं मृदु । . . यद्यदृष्टगुणं यदेव सुखकद्यच्चाल्पमात्रं महा-। . . वीर्य यच्च मनोहरं यदपि नियापच्च तद्भेषजम् ॥ ५२ ॥
भावार्थ:-इस प्रकार कोष्ठविशेषों के स्वरूप को जानने वाला वैद्य जिस के कोष्ठ को अछी तरह जान लिया है उसे दोषों को हरण करने वाले संशोधन का प्रयोग करें । एवं जिसके कोष्ठ का स्वभाव मालूम नहीं है तो उसे सौम्य व मृदु संशोधन औषधि का प्रयोग करें । जिस संशोधन औषधि का गुण ( अनेकवार प्रयोग करके ) प्रत्यक्ष देखा गया हो, [ अजमाया हुआ हो ] जो सुखकारक हो ( जिस को सुखपूर्वक खा, पीसके-खाने पीने में तकलीफ न हो ) जिस की मात्रा-प्रमाण अल्प हो, जो महान् वीर्यवान व मनोहर हो, जिस के सेवन से आपत्ति व कष्ट कम होते हों ऐसे औषध अत्यंत श्रेष्ठ हैं ( ऐसे ही औषधों को राजा व तत्समपुरुषों पर प्रयोग करना चाहिए ) अर्थात ऐसे औषध राजाओं के लिए योग्य होते हैं ॥ ५२ ॥
संशोधन में पंद्रहप्रकार की व्यापत्ति. प्रोक्त सद्धमने विरेचनविधी पंचादशः व्यापदः । स्युस्तासामिह लक्षणं प्रतिविधानं च प्रवक्ष्यामहे ॥ .. ऊर्धाधोगमनं विरेकवमनव्यापच्च शेषौषधे-। स्तज्जीर्णोषधतोऽल्पदोषहरणं वातातिशूलोद्भवः ॥ ५३ ॥ जीवादानमयोगामित्याततरां योगः परिस्राव इ-। त्यन्या या परिवर्तिका हृदयंसचारे विबंधस्तथा ॥
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