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कल्याणकारके
Ter भावार्थ::- उत्तर बस्ति देनेके पहिले उन अवयवोंको मल लेना चाहिए । तदनंतर "बस्तिका प्रयोग करना चाहिए। उस दिन सायंकाल दूधके साथ भोजन कराना चाहिए । अब बस्ति देनेके क्रमको कहेंगे || ३९ ॥
उत्तरवत्यर्थ उपवेशनविधि |
स्वानुदघ्नोन्नत सुस्थिरासने । व्यवस्थितस्यादृतकुक्कुटासने ||
नरस्य योज्यं वनिताजनस्य च । तथैवमुत्तानगताध्वपादितः ॥ ४० ॥
भावार्थ- पुरुषको उत्तरवस्ति प्रयोग करना हो तो उसको घुटनेके बराबर ऊंचे व स्थिर आसन ( बेंच कुर्सी आदि ) पर कुक्कुटासन में व्यवस्थित रूपसे बिठाल कर प्रयोग करें । स्त्रीको हो तो उपरोक्त आसनपर, चित सुलावें और दोनों पैर ऊंचा करके अर्थात् संकुचित करके प्रयोग करें ॥ ४० ॥
नभोगतेऽप्युत्तरवस्तिगद्रवे । सतैलनिर्गुण्डिर सेंदुलिप्सया ||
शलाकया मेद्रमुखं विघट्ट्य- । नपश्च नाभः प्रतिपीडयेदृढम् ॥ ४१ ॥ भावार्थ:-- पिचकारीका द्रवद्रव्य पूर्ण होनेपर तेल, निर्गुण्डिका रस और कपूर लिप्त शलाका से शिनके मुखको अच्छीतरह शोधन करना चाहिए एवं नाभिके नीचे अच्छीतरह हाथ से मलना चाहिए ॥ ४१ ॥
अगारधूमादिवर्ति ।
अगारधूमोत्पलकुष्ठपिप्पली । सुधर्वैः सहतीफल द्रवैः ॥
विलिप्तवर्ति प्रविवेशयेद्बुधः । सुखेन सद्यो द्रवनिर्गमो भवेत् ॥ ४२ ॥
॥ भावार्थ:--- गृहधूम, नील कमल, कूठ, पीपल, सेंवालोण व कटेहली फल इन के द्रव [ काथ आदि ] को बत्तीके ऊपर लेपन कर अंदर प्रवेश कराने से उसी समय द्रव्य सुगमता से आता है ॥ ४२ ॥
उत्तरवस्तिका उपसंहार ।
समूत्ररोगानतिमुत्रकृच्छतां । सशर्करानुग्ररुजाइमरीगणान् ॥ समस्तवस्त्याश्रयरोगसंचयान् । विनाशययेदुत्तरवस्तिरुत्तमः ॥ ४२ ॥
भावार्थः – मूत्ररोग, मूत्रकृच्छ, शर्कराश्मरी आदि संपूर्ण बस्त्याश्रित रोग इस उत्तर बस्तिसे नाश होते हैं । अर्थात् मूत्रसंबंधी रोगोंके दिये, उमसे उम्र अश्मी रोग के लिये व सर्व प्रकार के वस्तिगत रोगोंकेलिये यह उत्तरवस्ति उत्तम साधन है ||४३||
१ घर में धूवें के कारण, जो काला जम जाता है उसे गृहधूम, [घर का धूवा] कहते हैं |
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