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________________ क्षुदरोगाधिकारः (३०९) आकाश मेघसे आच्छादित हो उस दिन शिरमें, विशेषकर कनपटी में पीडा को उत्पन्न करता है । इसे शंखक शिरोरोग कहते हैं ॥ ६ ॥ रक्तपित्तज, वातकफज शिरोरोग के विशिष्टलक्षण. दिवातिरुक् शोणितपित्तवेदना । निशासु शांति समुपैति सर्वदा ॥ मरुत्कफो रात्रिकृतालिवेदना- । विह प्रसन्नावहनि स्वभावतः ॥ ७ ॥ भावार्थ:--रक्त पित्तके विकार से होनेवाली शिपीडा दिनमें अत्यधिक होती है और रात्रिमें पीडाशांति होती है । वात और कफ के विकारसे होनेवाली पीडा रात्रिमें तो अधिक होती है और दिनमें वे दोनों रोगी प्रसन्न रहते हैं ॥ ७ ॥ शिरोरोग चिकित्सा. विशेषतो दोषगति विचार्य ता- । नुपाचरेदुग्रशिरोगतामयान् । सिराविमोक्षैः शिरसो विरंचनः । प्रतापबंधैः कवलैः प्रलेपनैः ॥८॥ भावार्थ:-इन भयंकर शिरोरोगोंके दोषोंकी प्रधानता अप्रधानता आदिका विचार करके ( जिस दोपसे शिरोरंग की उत्पत्ति हुई हो उस के अनुकूल ) सिरा मोक्षण, शिरो विरेचन, तापन, बंधन, कवलधारण, लेपन आदि विधियोसे उनकी चिकित्सा करनी चाहिये ।। ८॥ क्रिमिज शिरोरोगन योग. विजालिनीबीजवचाकटात्रिकैः । सशिगुनिवास्थिविडंगसैंधवैः ॥ सकंगुतैलैरिह नस्यकर्मतः । क्रिमीन् शिरोजानपहंति सर्पपैः ॥ .. भावार्थ:-विजालिनी बीज, वचा, सेंजन, सोंठ, मिरच, पीपलका बीज, नीबुको गिरी, वायबिडंग, सेंधाले.ण, सरसों मालकांगन के तेल में मिलाकर अथवा इन औषधियोंसे मालकांगनीके तैल को सिद्ध करके नस्यकर्म करनेसे शिरमें उत्पन्न समस्त क्रिमियों को दूर करता है ॥ ९॥ शिरोरोगका उपसंहार. ___ दशंकारान् शिरसो महामयान् । विधाय साध्यान् विषमोरुशंखकान् ।। अतःपरं कर्णगतानशेषतो । ब्रवीमि संक्षेपविशेषलक्षणः ॥ १०॥ १ और कनपटीमें, तीवदाह व सूजन होती है । जिस प्रकार विषके वेग से गला रुक जाता है उसी तरह इस में भी गला रुक जाता हैं ! यह रोग तीन दिन के अन्दर मनुष्यका प्राणघात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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