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(३०८ )
कल्याणकार
क्रिमिज, क्षयज शिरोरोग.
क्रिमिएकारैर्दलतीव तच्छिरो । रुजत्यसङ्कासिकया सृजत्यलं । स्वदोषधातुक्षयतः क्षयोद्भव । स्तयोर्हितं तत्क्रिमिदोपवर्धनम् ॥ ४ ॥ भावार्थ:- :- मस्तक के अंदर नाना प्रकार की क्रिमियों की उत्पत्ति से शिर में दलन होता हो, ऐसी पीडा होती है, नाक से खून पूर्व आदि बहने लगते हैं । इसे कृमिज शिरोरोग जानना चाहिये । मस्तकगत वातपित्तकफ व वसा रक्त आदि धातुओंके क्षयसे क्षयेज शिरोरोग की उत्पत्ति होती है । कृमिज शिरोरोग में कृमिनाशक नस्य आदि देना चाहिये । क्षयज शिरो रोग में दोष व धातुओं को बढानेवाली चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ४ ॥
सूर्यावर्त, अर्धावभेदक लक्षण.
क्रमक्रमाद्वद्विमुपैति वेदना | दिनार्धतोऽसौ व्रजतीह सूर्यवत् ॥ शिरोऽर्धमर्धे क्रमतो रुजत्यलं । ससूर्यवत्तोर्धशिरोऽवभेदकः ॥ ५ ॥
भावार्थ:-सूर्य जिस प्रकार बढजाता है उसी प्रकार सुबह से शिरकी दर्द मध्यान्ह समयतक बढती जाती है और सूर्यके उतरते समय वह वेदना भी उतरती जाती है । उसे सूर्यावर्त शिरोरोग कहते हैं । शिरके ठीक अर्धभाग में जो अत्याधिक दर्द होती है उसे अर्धावभेदक कहते हैं ।। ५ ॥
शंखक लक्षण.
स्वयं मरुद्वा कफपित्तशोणितैः ः । समन्वितो वा तु शिरोगतोऽधिकः सशीतवाताद्भुतदुर्दिने रुजां । करोति यच्छंखकयोर्विशेषतः ॥ ६ ॥
भावार्थ:- एक ही बात अथवा, कफ, पित्त व रक्त से युक्त होकर, शिरका आश्रय करता है, तो, वह जिस दिन शीत अत्यधिक हो, ठण्डी हवा चल रही हो,
कफज - जिसका मस्तक के भीतर का भाग कफ से लिप्स होवें, भारी, बंधासा एवं ठंड होवे, नेत्र के कोये व मुख सूज गये हो तो उसे कफोत्पन्न शिरोरोग जानना चाहिये ॥
सन्निपातज - उपरोक्त तीनो दोषों के लक्षण एक साथ प्रकट हों तो सन्निपातज शिरोरींग जानना चाहिये |
रक्तज - रक्तज शिरोरोग में पित्तज शिरोरोग के संपूर्णलक्षण मिलते हैं एवं मस्तक स्पर्शासह हो जाता है ।
१ इस का लक्षण यह है कि छीक अधिक आती है । शिर ज्यादा गरम होता है। असह्य पीडा होती है ! एवं स्वेदन, वसन, धूम्रपान, नस्य, रक्तमोक्षण, इन से वृद्धि को प्राप्त होता है ।
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