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क्षुद्ररोगाधिकारः ।
अथ पंचदश परिच्छेदः ।
अथ शिरो रोगाधिकारः ।
मंगलाचरण |
श्रियः प्रदाता जगतामधीश्वरः । प्रमाणनिक्षेपनयप्रणायकः । निजोपमानो विदिताष्टकर्मजि- । ज्जयत्यजेयो जिनवल्लभोऽजितः ||१||
(३००)
भावार्थ:- अंतरंग बहिरंग संपत्तिको प्रदान करनेवाले, जगत् के स्वामी, प्रमाण निक्षेप व नयको प्रतिपादन करनेवाले, किसीसे जेय नहीं ऐसे श्री अजित जिनेश्वर जयवंत रहें ॥ १ ॥
शिरोरोगकथन प्रतिज्ञा ।
प्रणम्य तं पापविनाशिनं जिनं । ब्रवीमि रोगानखिलोत्तमांगगान् ॥ पतीत सल्लक्षणसच्चिकित्सितान् । प्रधानतो व्याधिविचारणान्वितान् ॥२॥
भावार्थ: पापको नाश करनेवाले श्री अजितनाथको प्रणाम कर लक्षण, चिकित्सा य व्याधिविचारण पूर्वक शिरोगत रोगोंका कथन करेंगे इस प्रकार आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥ २ ॥
शिरोरोगोंके भेद |
शिरोरुजो वातबलासशोणित- । प्रधानपिचैरखिलैर्ब्रवीम्यहम् || स सूर्यवत्तार्धशिरोवभेदकैः । सशंखकेनापि भवति देहिनाम् ॥ ३ ॥
भावार्थ: मनुष्यों के शिरमें वात, पित्त, कफ, रक्त, सन्निपातसे, वातज, पित्तज, कफज, रक्तज, सन्निपातज शिरोरोग उत्पन्न होते हैं । एवं तत्तद्दोषों के प्रकोप से, सूर्यावर्त, अर्धावभेदक, शंखक नामक शिरोरोगों की उत्पत्ति होती है ॥ ३ ॥
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१ इन शिरोरोगों में वातादि दोषों लक्षण प्रकट होते हैं ।
वातिकलक्षण - जिसका शिर अकस्मात् दुखे, रात्रि मे अत्यधिक दुखे बंधन, सेक आदिसे शांति हो उसको वातज शिरोरोग जानना चाहिये ।
पित्तज - जिसमें मस्तक अग्निके समान अधिक उष्ण हो, आंख नाक में जलन होती हो एवं शीतल पदार्थ के सेवन से रात्रिमें उपशमन होता हो उसे पित्तोत्पन्न, मस्तकशूल जानना चाहिये ।
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