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(२३४)
कल्याणकारके
वातरोग में हित। साग्नियानगुरुसंवरणानि । ब्रम्हचर्यशयनानि मृदूनि ॥ ..... धान्ययूषसहितानि खलानि । प्रस्तुतान्यनिलरोगिषु नित्यम् ॥१३॥ . .
भावार्थ:-गरम सवारीमें जाना, भारी कपडोंको ओढना, ब्राहचर्यसे रहना, मृदुशयनमें सोना, धान्ययूष सहित खल ( व्यंजनविशेष ), ये सब वातरोग के लिये हितकर हैं ॥ १३ ॥
वातरोग में हित। आज्यतैलयुतभक्षणभौज्यों- । ष्णावगाहपरिषेककरीषेः ॥ स्वेदनान्यतिसुखोष्णसुखानी- । त्येवमाद्यनिलवारणमिष्टम् ॥ १४ ॥
भावार्थ:--घी, तेलसे युक्त भक्ष्य व भोजन, उष्ण काढा आदिमें अवगाहन, करीष [ सूखे गोबर ] को, थोडा गरम कर के सेक कर सुखपूर्वक स्वेदलाना आदि यह सब वातनिवारण के लिये हितकर हैं ॥ १४ ॥
तिल्यकादि घृत । तिल्वकाम्लपरिपेषितकल्कं । बिल्वमात्रमवगृह्य सुदंती ।। क्षीरकंचुकमिति त्रिवृतारव्या-- । न्यक्षमात्रपरिमाणयुतानि ॥१५॥ आढकं दधिफलत्रयजात- । काथमाढकमथापि घृतस्य ।। प्रस्थयुग्ममखिलं परिपकं । वातिनां हितविरेचनसर्पिः ॥ १६ ॥
भावार्थ:--खट्टी चीजोंसे पिसा हुआ तिल्वक ( लोधके वृक्षके आकारवाला, जिसकी पत्तियां बडी होती है, लालवर्ण युक्त, ऐसे विरेचनकारक वृक्षविशेष) कल्क ४ तोले, जमालगोटे की जड, क्षीर कंचुकी [क्षीरीशवृक्ष ] निशोथ ये एक २ तोले लेकर, चूर्ण करें और उपरोक्त ( तिल्यक ) कल्कमें मिलावें । यह कल्क, एक आढक [ ३ सेर, १६ तोले ] दही, एक आढक त्रिफलाक्वाथ, इन चीजोंसें, दो प्रस्थ [ डेढ सेर १२ तोला ] धृत यथाविधि सिद्ध करें। यह तिल्वकादि घृत, वातिक सोगियोंको विरेचन के लिये उपयोगी है ॥ १५ ॥ १६ ॥
अणुतैल । पीलुकोपकरणानि तिलानां । खण्डखण्ड शकलानि विधाय । क्वाथयेद्वहुतरोदकमध्ये । तैलमुत्पतितमत्र गृहीत्वा ॥ १७ ॥ १ रोधाकारे बृहत्पत्रे, रवैरेपनिक वृशे। पंधक शब्दसिंधु.
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