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महामयाधिकारः ।
( २३३ )
भावार्थ:- वातविकार से जिसका शरीर स्तब्ध व आकुंचित हो गया है उसके लिये मोटा पुल्टिश बांधना चाहिये । स्कंध (कंधा), जत्रु ( हंसली ) गल व वक्षस्थान में वात हो तो नस्य और चमनसे शमन करना चाहिये ॥ ९ ॥
सर्वागगतादिवातचिकित्सा ।
एकदेश सकलांगगवातं । बस्तिरेव शमयेदतिकृच्छ्रम् । उत्तमांगसहितामलबस्ति । धारयेत्क्षणसहस्रमशेषम् ॥ १० ॥
भावार्थ:- एक देशगत व सर्वांगगत अतिकठिनसाध्य वात को वस्तिप्रयोग शमन करसकता है । शिरोगतवायु हो तो शिरोबस्तिको एक हजार क्षणतक धारण करना चाहिये ।
शिरोवस्तिः - चर्म व चर्मसदृश मोटे कपडेसे टोपीके आकारवाली लेकिन इसके ऊपर व नीचेका भाग खुला रहे [ टोपी में ऊपरका भाग बंद रहता है ] ऐसी बिना | उसके एक मुंहको शिरपर जमाके रखें । उसकी संधिमें उडदकी पिट्टीका लेप करें । इसके बाद उसके अंदर वातघ्न तैल भरकर १००० एक हजार क्षणतक शिरको निश्चल रखकर धारण करावे तो नाक मुंह और नेत्रमें स्राव होने लगता है । तब उसको शिरसे निकाल लेवें । इसे शिरोबस्ति कहते हैं ॥ १० ॥
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आवृद्धवाचिकित्सा ।
स्नेहिकैर्बमनलेपविरेका-- । भ्यंगधूपकबला खिलबस्तिम् ॥ प्रोक्तनस्यमखिलं परिकर्म । प्रारभेत बहुवातविकारे ॥ ११ ॥
भावार्थ:- अत्यधिक वातविकार हो तो स्नेहन वमन, लेप, विरेक, अभ्यंग, धूप, कबल व बस्ति आदि पहिले कहे हुए नस्य प्रयोगोंका आवश्यकतानुसार प्रयोग करें ॥ ११ ॥
वातरोग में हित ।
स्निग्धदुग्धदधिभोजनपाना- । न्यम्लकानि लवणोष्णगृहाणि ॥ कुष्टपत्र बहुलागुरुयुक्ता । लेपनान्यनिलरोगहितानि ॥ १२ ॥
भावार्थ:- चिकने पदार्थ (तैल वी) व दूध, दही, खट्टा और नमकीन पदार्थोको भोजन व पान में उपयोग, गरम मकान में निवास और कूट, तेजपात, इलायची व अगुरु उनका लेपन करना, वातरोग के लिये हितकर है | ॥ १२ ॥
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