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महामयाधिकारः
तच्च वातहरंभषजकल्क- । क्याथदुग्धदधिभागविपकम् ॥ वातरोगमणुतैलमशेषं । हंति शांतिरिव कर्मकलंकम् ।। १८ ।।
भावार्थ:---पीलु वृक्षकी छाल व तिलको टुकडा २ कर बहुतसे पानीमें पकाकर काथ करना चाहिए। उसमें जो तेल निकले उसे निकालकर बात हर औषधियोंका कल्क क्वाथ, दूध, दहीके साथ पकानेपर तैल सिद्ध होता है। उसका नाम अणुतैल है। जिस प्रकार शांतिक्रिया कर्म कलंकको नाश करती है उसी प्रकार उस तेलका एक अणु भी संपूर्ण वात रोग को नाश करता है ॥ १७ ॥ १८ ॥
__ सहस्रविपाक तेल | सर्ववातहरवृक्षविशेषै- । शोषितैरवनिमाशु विदग्धाम् ॥ तैर्विपकवरतैलपटैर्नि- । प्य नक्तमुषितां ह्यपरेयुः ॥ १९ ॥ स्नेहभावितसमस्तमृद निः- । काथ्य पूर्ववदिहोत्थिततैलम् । आम्ल दुग्धदधिवातहरका- । थौषधैरीप ससहस्रगुणांशैः ॥२०॥ सर्वगंधपरिवापविपकं । पूजया सततमेव महत्या ॥ पूजितं रजतकांचनकुंभ- । स्थापितं वरसहस्रविपाकम् ॥ २१ ॥ राजराजसदृशोऽतिधनाढ्यः । श्रीमतां समुचितं भुवि साक्षात् ॥ तैलमंतदुपयुज्य मनुष्यो । नाशयेदखिलवातविकारान् ॥ २२ ॥
भावार्थ:---सर्व वातहर वृक्षोंको सुखाकर उनसे भूमि को जलाये तथा उन्ही वात हर वृक्षोंकी छाल, जड आदि के क्वाथ व कल्कके द्वारा एक आढक तिलके तैल को पकाकर सिद्ध करें । उस तेलको उस जलाई हुई भूमि पर डालें । एक रात्री वैसा ही छोडकर दुसरे दिन उस तेल से भावित मिट्टीको निकालकर क्वाथ करें जिससे यथापूर्व निकल जायगा । उस तेलको हजार गुना आम्ल, दधि, दुग्ध व वातहर औषधियोंके क्वाथ व कल्क के साथ हजार वार पकाना चाहिए । तब वह तेल सिद्ध होजाता है । फिर उसमें सर्व गंधद्रव्यों [ चन्दन कस्तूरी कपूर आदि 1 को डालकर बहुत विजभणके साथ पूजा करके उसे चांदी व सोनेके घडेमें भरकर रखें । इस तैल को तैयार करनेके लिए राजाधिराज सदृश धनाढ्य ही समर्थ हैं । इस तैलको उपयोग करनेसे मनुष्य सर्वप्रकारके बात विकारोंको दूर करता है ॥१९।२०।२१।२२॥
पत्रलवण। नक्तमालबृहतीद्वयपूति- काग्निकेचरकमुष्कपुनर्ने- ॥ रण्डपत्रगणमत्र गृहीत्वा । क्षुण्णमेबुलवणेन समानम् ॥ २३ ॥
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