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'कल्याणकार
शिलाजतु कल्प.
इति पलवल्कलकल्क संविहितकल्पमनल्पमुदाहृतम् । विदितचारुशिलाजतुकल्पमप्यधिकमल्पविकल्पयुतं ब्रुवे ॥ २० ॥
mier: अभीतक शिलावल्कल [ छाला ] के कल्क को विस्तार के साथ प्रतिपादन किया । अब शिलाजीत के कल्पको अधिक प्रकार का होनेपर भी अल्पविकल्पों के साथ करेंगे ॥ २० ॥
शिलाजीत की उत्पत्ति.
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अथ वक्ष्याम्यद्विजातप्रवरजतुविधिः संभवादिस्वभाव- । रिह शैला ग्रीष्मकाले जलदनलसम की शु संत प्रदेहाः ॥ निजमैस्तुगकुटेः कठिनतरसमुद्धि असम गण्डैः । मदधारामुत्सृजति त्रिजगदतिशयं सज्जते माज्यवीर्यम् ॥ २१ ॥
भावार्थ:-- अब शिलाजीत के कल्प को उस की उत्पत्ति स्वभाव आदिकों के कथन के साथ २ प्रतिपादन करेंगे । प्रष्म ऋतु में अत्यंत प्रकाशमान [ तेजयुक्त ] अनि के समान रहनेवाले सूर्यकिरणों से पर्वत अत्यंत तप्त होकर वे अपने शिररूपी ऊंची २ चोटी के अत्यंत कठिन व फटे हुए आजू बाजू के प्रदेशरूपी गंडस्थल से [ कपोल ] युक्त पर्वत के शिखर में रहनेवाले कठिन पत्थरों से, मदोन्मत्तहाथी के जिस प्रकार मदजल बहता है उसी प्रकार लाख के रस के समान लाल रस "चुंबते हैं । यही रस, तीन लोक में अतिशयकारक व उत्कृष्ट वीर्यवाला शिलाजीत कई छाता है । अथवा यही तीन लोकको अतिशय बल व वीर्यश ली बनाता है ॥२१॥
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शिलाजतुयोग.
सीसास्ताम्रपत्र र रजत सत्कांचनानां च योनिं । नियतासंख्या क्रमेणोत्तरमधिकतरं सेव्यमेतद्यथावत् ॥ त्रिफलांबुक्षीरसर्पिरसहितामिह महाश्लेष्मपित्तानिलोत्थैः । गिरिनिर्यासो रसेंद्रः कनककुद खिलव्याधिहृद्वेषजं च ॥ २२ ॥
भावार्थ:- रांगा, सीस, लोह, ताम्र, चांदी, सोना, ये छह धातु शिलाजीत के
योनि है । इन नियत उत्तरोतर धातुओंसे उत्पन्न शिलाजतु एक से एक अधिक गुणवाा
१ पर्वतस्य पत्थरो में रांगा आदि धातुओं का कुछ न कुछ अंश अवश्य रहता है । जब पत्थर तप जाता है तो ये धातु पिघल कर शिलाजीत के रूप में होते हैं । इसलिये इन धातुओं को शिलाजीतकोने के नाम से कहा है ।
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