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________________ अथ हिताहिताध्यायः । ( ७२३ ) एवं वैद्यशास्त्र तु पुनराप्तोपदिष्टमेव आगभमिव । अतींद्रियपदार्थविषयत्वात्, वैद्यशास्त्रमदृष्टं प्रमाणमिति वचनात् । तथा चैवं शास्त्रं प्रमाणं पुरुषप्रमाणात् । तेऽपि प्रमाणं प्रवदंत्येतद् । आचार्य आह पुनर्द्वितीयो धर्मस्तथा निर्धार्यते इति प्रमाणं । तस्माद्वैद्यं नामात्मकर्मकृतमहान्याधिनिर्मूलकरणप्रायश्चित्तनिमित्तमनुष्ठितं धर्मशास्त्रमेतत् । तथा चयम् । बाह्याभ्यंतर क्रियाविशेषविशुद्धात्मनामुपशमप्रधानोपवासैरस मैथुनविरामरसपरित्यागखलयूषयवागूष्णोदककटुकतिक्तकषायाम्लक्षाराक्षमात्रनिषेवणमनोवाक्कायनिरोधस्नेहच्छेदनादिक्रियामहा कायक्लेशयुतव्रतचर्यादिधर्मोपदेशात् । उक्तं हि स्निग्धस्विन्नवांत विरिक्तानुवासितास्थापितशिरोविरिक्तशिराचिद्वैर्मनुष्यैः परिहर्तव्यानि क्रोधायासशोक मैथुम दिवास्वप्नवै भाषणयानारोहण चिरास्थान चंक्रमणशतिवातातपविरुद्धाध्यशनासात्म्याजीर्णान्यपि लप्यते । वासमेकं विस्तरमुपरिष्टाद्वक्ष्याम इति वचनात् । कपिल मुनि का वचन इसप्रकार है । आप्तं शिष्ट व ज्ञानी होते हैं । उनका वचन संशयरहित हुआ करता है । वे सदा सत्यवचन ही बोलते हैं। क्यों कि निरोगी व अज्ञानरहित होनेसे वे असत्य नहीं बोल सकते हैं । 1 इस प्रकार यह वैद्यशास्त्र तो आप्तोपदिष्ट है । अत एव वह आगम है । एवं उसे अतींद्रिय पदार्थों के विषय होने के कारण अदृष्टप्रमाणके नाम से कहा गया है । इसलिये यह शास्त्र प्रमाण है, ( हेतु ) उस के कथन करनेवाले पुरुष [ आप्त ] प्रमाण होने से । वे भी इसे प्रमाण के रूप से कहते हैं । दूसरी बात यह वैद्यशास्त्र द्वितीय धर्मशास्त्र ही है । अतएव प्रमाणभूत है । इसलिये यह आयुर्वेदशास्त्र अपने पूर्वोपात्तकर्मों से उत्पन्न महाव्याधियोंको निर्मूलन करने के लिये प्रायश्चित्तके रूप . में आचरित धर्मशास्त्र है । कहा भी है । बाह्यभ्यंतरक्रियाविशेषों से अपनी आत्माको शुद्ध करना, मंदकषायप्रधानी होकर उपवास करना, मैथुनविरति, रसपरित्याग, खल, यूत्र, यवागू, उष्णोदक, कटु, तिक्त, कषाय, आम्ल, मधुरका आक्षमात्र सेवन, मन वचन काय का निरोध, स्नेह, छेदनादि क्रिया, महा कायक्लेशकर व्रतचर्यादि के आचरण करने का उपदेश इस शास्त्र में दिया गया है । यही धर्मोपदेश है । ऐसा भी वहा है कि जिन के शरीरपर स्निग्धक्रिया, खदेनक्रिया, विरेचन, अनुवासन, आस्थापन, शिरोविरेचन, शिराविद्धन आदि क्रियाओं का प्रयोग किया गया हो उन को चाहिये कि वे कोच, श्रम, शोक, मैथुन, दिवसशयन, अधिक बोलना, वाहनारोहण, बहुत देरतक एक स्थान में बैठे रहना, अधिक चलना, शीत का सेवन, अधिक धूपका सेवन, विरुद्ध भोजन, बार २ भोजन, लिये अननुकूल भोजन, अजीर्ण आदि का वे शररिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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