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(७२२ )
कल्याणकारके
तथा चैवं सनातनधर्माणामप्युक्तं स्वरूपम् ।
अहिंसासत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्य विमुक्तता।
सनातनस्य धर्मस्य मूलमंते दुरासदाः ॥ धर्माचार्येश्वरमते इति चरणेप्युक्तम् ।
रजस्तमोभ्यां निर्मुक्तास्तपोज्ञानबलेन ये ।
येषां त्रिकालममल ज्ञानमव्याहतं सदा ॥ कपिलमुनिवाक्यमेतत् ।
आप्ताः शिष्टविबुद्धास्ते तेषां वाक्यमसंशयम् ।
सत्यं वक्ष्यंति ते कस्मात्रीरुजोऽतमसोऽनृतम् ॥ तित्तिर, तैतिल्य, माण्डव्य, शिबि, शिबा, बहुपत्र, अरिमेद, काश्यप, यज्ञवल्क, मृगशर्म, शाबायन, ब्रह्म, प्रजापति, अश्विनि, सुरेंद्र, धन्वंतरि आदि ऋषियोने एवं अन्य मुनियोने अतिनिद्य, अभक्ष्य, दुस्सह एवं दुर्गतिहेतुक मद्यमधुमांस को दूर से ही निराकरण किया है । इस समय भी हमेशा सर्व शास्त्रकार व सजनोंके द्वारा एवं अतिकुशल वैद्योंके द्वारा वह त्यक्त होता है, फिर ऐसे निंद्य पदार्थों का ग्रहण किस प्रकार किया जाता है ? अथवा इन ब्रह्मादिक आत व मुनिगणों के द्वारा ये मद्यमधुमांसादिक भक्षण किये जाते हैं तो ये आप्त व. मुनि किस प्रकार हो सकते हैं ? यदि वे भक्षण नहीं करते हों तो स्वयं भक्षण न करते हुए दूसरोंको नरकपतन के निमित्तभूत, निष्करुण ऐसे मांसभक्षण का उपदेश कैसे देते हैं ? यह परमाश्चर्य की बात है। फिर भी वे मांस भक्षण के लिए उपदेश देते ही हैं ऐसा कहें तो वे आप्त कभी नहीं बन सकते हैं एवं मुनि भी नहीं बन सकते हैं । एवं वह वैद्यशास्त्र आगम भी नहीं हो सकता है । कहा भी है:
आगम तो आप्तका वचन है। दोषोंका जिन्होंने सर्वथा नाश किया है उसे आप्त कहते हैं । जिनके दोषोंका अंत हुआ है वे कभी दोषपूर्ण असत्यवचनको नहीं बोल सकते हैं। - इसी प्रकार आप्त के गुण निम्नलिखित प्रकार कहे गये हैं।
उस जगत्पति परमात्मा का अक्षय ज्ञान, वैराग्य, स्थिर ऐश्वर्य, एवं धर्म ये चार गुण उसके साथ ही उत्पन्न होनेवाले हैं। - इसी प्रकार सनातनधर्म का स्वरूप भी कहा गया है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय,ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह ये अत्यंत कठिनतासे प्राप्त करने योग्य हैं एवं सनतान धर्मके ये मूल हैं ।
धर्माचार्य ईश्वर के मत में इस प्रकार कहा है । रज व तमसे जो निर्मुक्त हैं, जो अपने तप व ज्ञान के बल से संयुक्त हैं, जिनका ज्ञान त्रिकाल संबंधी विषयों को ग्रहण करता है, जो निर्मल व अक्षय हैं वे आप्त कहलाते हैं ।
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