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________________ (७२० ) . कल्याणकारके दया च सर्वभूतेषु मुदिता व्रतधारिषु । कारुण्यं क्लिश्यमानेषु चौपेक्षा निर्दये शठे ॥ इति प्रवचनभाषितत्वादेवमेतस्मिन्वैद्यशास्त्रे बहुजीवववनिमित्तमधुमद्यमांसादिकइमलाहारनिषेत्रणमशेषदोष कोपनमतिपापहेतुकमखिलव्याधिप्रवृद्धिनिमित्त पशुपतिबृहस्पतिगौतमा ग्निवेश्यहस्तचारिवाद्वलिराजपुत्रगार्यभागवभारध्वजपालकाप्यविशालकौशिकपुत्रवदर्यनरनारदकुंभदत्तविभांडकहिरण्याक्षकपाराशरकौंडियकाथायिन तित्तिरतैतिल्यमांडव्याशबिशिबाबहुपत्रारमेदकाश्यपयज्ञवल्कमृगशमशाबायनत्रम्हप्रजापत्याश्वानसुरेंद्रधन्वंतरिप्रभृतिभिराप्तरैशेषमहामुनिगणैरन्यैरति निंद्यमभक्ष्यमतिदुस्सहदुर्गतिहेतुरितिदूरादेव निराकृतमिदानीमपिसर्वदा सर्वेरेव समयिभिःसत्पुरुषैरन्यैरति कुशलयद्यैश्च पारत्यक्तं कथमुपयुज्यते । अथवेतैरपि ब्रह्मादिभिराप्तरशेषमुनिगणश्च तन्मधुमद्यमांसार्दिकं भक्ष्यते इति चेत् कथं ते भवत्याता मुनयश्च । यदि ते न भक्षयंती तिचेत् कथं स्वयमभक्षयंतो दुर्द्धरनरकपतनजनकमतिनिष्करणमन्येषां पिशितभक्षणं प्रतिपादयंति इत्यतिमहाश्चर्यमेतत्तथापिप्रतिपादयन्त्येवेति चेदनाप्ता भवत्यनागमश्च स्याद्वैद्य शास्त्रं । तथा चोक्तम् ।। आगमो ह्याप्तवचनमा दोषक्षये विदुः । क्षीणदोषोऽनृतं वाक्यं न यादोषसंभवम् ॥ एक को प्राधान्य नहीं देकर चारों के समुदाय को ही प्राधान्य देते हैं। क्यों कि वह उपयुक्त द्रव्य कही २अपने स्वभावसे दोषोंको हरण करता है या उत्पन्न करता है, कहीं २ वीर्यसे युक्त होकर दोषोंको नाश करता है या उत्पन्न करता है। कहीं कहीं विपाकसे युक्त होकर दोषोंको दूर करता है या उत्पन्न करता है । इसके अलावा द्रव्यमें वीर्यके विना विपाक नहीं हुआ करता है, एवं रसके आश्रयके बिना वीर्यभी नहीं हुआ करता है । रस । गुण ] द्रव्यके आश्रयको छोडकर नहीं रह सकता। इस लिए द्रव्य ही सबसे श्रेष्ठ है। जिसप्रकार देह क, आत्माकी उत्पत्ति परस्पर सापेक्षिक है उसी प्रकार द्रव्य की गुणकी उत्पत्ति भी परस्पर सापेक्षिक है । वीर्य के रूप में प्रतिपादित स्निग्धत्व आदि जो आठ गुण हैं वे भी दव्य के ही आश्रित हैं। क्यों कि ये गुण रसो में अर्थात् गुणों में नहीं हुआ करते । उदाहरणार्थशक्कर का गुण मधुरत्व है । उस मधुरत्व गुण में कोई और गुण नहीं हुआ करता है। क्यों कि वह स्वतः एक गुण है । अतएव आगम में गुणों को निर्गुण के रूप में प्रतिपादन किया है । गुणवीर्य आदिक छह रस वगैरे सभी द्रव्य में ही रहते हैं। इसलिए द्रव्य ही सबमें श्रेष्ठ है, बाकीके सभी धर्म उसीके आश्रयमें रहते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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