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(५७०)
कल्याणकारके
दुष्टादुष्टमपोद्यमेवमखिलं क्षीरेण वा क्षालयेत् ।
पत्रैर्वा वृणुयाद्वणं वनरुहैः कुर्यादवणोक्तक्रियाम् ॥ ३०॥ भावार्थ:--अतिदग्धको भी कुशल वैद्य जानकर अधिक शीतलचिकित्सा करें । एवं नीचे झूमते हुए मांसोंको, स्नायु आदिकोंको भी दूर करें। दुष्ट अदुष्ट सर्व स्नायु आदिकोंको अलग निकालकर अर्थात् साफ कर के उस व्रणको दूधसे धोना चाहिये । बाद उस व्रण को वृक्ष के पत्तों से ढकना चाहिये एवं उसपर व्रणांक्त सर्व चिकिसा करनी चाहिये ॥ ३० ॥
रोपणक्रिया. तदग्धव्रणरोपणेऽपि सुकृते चूर्णप्रयोगार्हके । काले क्षाममपयुषरमलिनैः शाल्यक्षतेलाक्षया ।।
क्षीरक्षारसतिंदुकाम्रबकुलपोत्तुंगजबूकदं-। - बत्वग्भिश्च सुचूर्णिताभिरसकृत् संचूर्णयनिर्णयम् ॥ ३१ ॥
भावार्थ:-उस दग्धवण के रोपणक्रिया करने पर चूर्णप्रयोग करने के योग्य काल जब आवे, क्षामरहित निर्मल चावल, लाख, क्षीरीवृक्ष, व क्षारवृक्ष की छाल और तेंदू, आम्र, वकुल, जंबू, कदंब, इन वृक्षोंकी छाल को अच्छी तरह चूर्ण कर बुरखना चाहिये ॥ ३१ ॥
सवर्णकरणविधान. विप्रेषक्तविचित्रवर्णकरणानेकोषधालेपनं । कुर्यात्स्निग्धमनोज्ञशीतलतरस्वाहारमाहारयेत् ॥ प्रोक्तं चाग्निविधानमेतदखिलं वक्ष्यामि शस्त्रक्रियां।
शस्त्राणामनुशस्त्रशस्त्रविधिना शस्त्रं द्विधा चोदितम् ॥ ३२ ॥ भावार्थ:-इस दग्धव्रण के भर जानेपर उसे श्वित्रकुष्ठ ( सफेद कोढ ) में कहे गये सवर्ण करनेवाले अनेक प्रयोगों से सवर्ण करना चाहिये अर्थात् त्वचाके विकृत वर्ण को दूर करना चाहिये । उस रोगी को स्निग्ध, मनोहर व शीतल आहार को खिलाना चाहिये । अभी तक अग्निकर्मका वर्णन किया । आगे शस्त्रकर्म का वर्णन शास्त्रानुसार करेंगे । वह शस्त्रकर्म अनुशस्त्र व शस्त्रके भेदसे दो प्रकार से विभक्त है ॥ ३२ ॥
___अनुशस्त्रवर्णन. तत्रादावनुशस्त्रभेदमाखलं वक्ष्यामि संक्षेपतः । . क्षाराग्निस्फटिकोरसारनखकाचत्वरजलूकादिभिः ॥
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