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कर्मचिकित्साधिकारः ।
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भावार्थ:- अग्नि, स्निग्ध [ घृततैलादि ] रूक्ष, ( काष्ट पाषाण, लोह आदि ) द्रव्यों को प्राप्तकर, शीघ्र ही भयंकर रूपसे जलाता है, और उस दग्धस्थान में अत्यधिक वेदना व नाना प्रकार के स्फोट ( फफोले ) आदि उत्पन्न होते हैं । अग्नि के द्वारा जो स्पृष्टदग्ध कहा है, उसे जानकर शीघ्र ही उसी अग्नि से लपाना चाहिये अर्थात् स्वदन करना चाहिये । एवं उष्ण व उष्णगुणयुक्त औषधियोंसे बार २ लेप करना हितकर है ॥ २७ ॥
भावार्थ:
: --- सम्यग्दग्ध में बार २ घी लेपन करके चंदन, अश्वत्थादि दूधिया वृक्षों के छाल, तिल, मुलैठी, धान, चावल इनको, दूध या ईख के रस के साथ पीसकर, अथवा घी मिलाकर, लेपन करना चाहिये । अथवा गिलोय, कमल-पुष्पवर्ग ( सफेद कमल, नीलकमल, लालकमल आदि ) इनको अथवा गेरु, वंशलोचन इनको, उपरोक्त द्रवोंसे पीसकर आदरपूर्वक लेप लगावें ॥ २८ ॥
सम्यग्दग्धचिकित्सा.
सम्यग्दग्धमिहाज्यलिप्तमसकृत् सचंदनैः क्षीरवृ- । क्षत्वग्भिः सतिलैः: सत्यष्टिमधुकैः शाल्यक्षतैः क्षीरसं - ॥ पिष्ठैरिक्षुरसेन वा घृतयुतैः छिन्नोद्भवमोजव- 1
: वा गैरिकया तुगासहितया वा लेपयेदादरात् ॥ २८ ॥
दुर्दग्धचिकित्सा:
दुर्दग्धेपि सुखांष्ण दुग्धपरिषेके राज्यसंम्रक्षणैः । शीतैरप्पनुलेपनैरुपचरेत् स्फोटानपि स्फोटयेत् || स्फोटान्स स्फुटितानतो घतयुतैः शीतोषः शीतलैः । पत्रैर्वा परिसंवृतानपि भिषक्कुर्यात्सुतादृतिम् ॥ २९ ॥ भावार्थ:- दुर्दग्धमें भी मंदोष्ण दूधके सेचन से, घृत के
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लेपन से एवं शीतद्रव्यों के लेपन से उपचार करना चाहिये । फफोलों को भी फोडना चाहिये | फूटे हुए फोडोंपर शीतलऔषधियों के साथ घी मिलाकर लगावें और शीतलगुणयुक्त वृक्ष के शीतल पत्तोंसे उनको ढकें । साथमें रोगको शीतल अन्नप्रांनोदि देवें ॥२९॥
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अतिदग्धचिकित्सा.
ज्ञात्वा शीतलसंविधानमधिकं कृत्वातिदग्धे भिष- 1 मांसान्यप्यवलंबितानपहरेत्स्नाच्चादिकान्यप्यलम् ॥
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