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(५६८ )
कल्याणकार
भावार्थ:
उस अन्यथा दग्ध के स्पृष्ट, सम्यग्दग्ध, दुर्दग्ध व अत्यंतदग्ध इस प्रकार चार भेद करे गये है । इन के क्रमशः लक्षण, श्रेष्टचिकित्सा व रोगी के आहार आदि विधान को भी मान्य जिनेंद्र के मतानुसार कहेंगे ॥ २४ ॥
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पृष्ट, सम्यग्दग्ध, दुर्दग्ध, अतिदग्धका लक्षण. यच्चात्यंतविवर्णमृष्मबहुलं तच्चाग्निसंस्पृष्टमि । त्यन्यद्यत्तिलवर्णमुष्णमधिकं नेत्रातिगाढं स्थितं ॥ तत्सम्यक्समदग्धमप्यभिहितं स्फोटोभ्दवस्तीत्रसं - । तापादुःखतरं चिरमशमनं दुर्दग्धतालक्षणम् ||२५|| मूर्च्छा वातितृषा च संधिविगुरुत्वं चांगसंशोषणं । मांसानामवलंबनं निजसिरास्नाय्वस्थिसंपीडनं ॥ कालात्सक्रिमिरेव रोहति चिरारूढोऽतिदुर्वर्णता स्यादत्यंतविदग्धलक्षणमिदं वक्ष्ये चिकित्सामपि ॥ २६ ॥
भावार्थः – जो अत्यंत विवर्ण युक्त हो, अधिक उष्णतासे युक्त हो, उसे स्पृष्टदग्ध कहते हैं । जो दग्ध तिलके वर्णके समान काला हो, अधिक उष्णतासे युक्त हो एवं अतिगाढ ( अधिक गहराई ) रूपसे जला नहीं हो, वह समदग्ध है। वह ठीक है । जिसमे अनेक फफोले उत्पन्न होगये हों, जो तीव्र संताप को उत्पन्न करता हो, दुःखक देनेवाला हो, और बहुत देरसे उपशम होनेवाला हो उसे दुर्दग्ध कहते हैं । जिसमें मूर्छा, अतितृषा, संधिगुरुत्व, अंगशोषण, मांसावलंबन [ उस व्रण में मांस का लटकना ] सिरा स्नायु व अस्थि में पीडा व कुछ समय के बाद ( व्रण में ) कृमियों की उत्पत्ति हो, दग्धत्रण चिरकाल से भरता हो, भरजानेपर भी दुर्वर्ण (विपरीतवर्ण ) रहें, उसे अतिदग्ध कहते हैं । अब इन दग्वव्रणोंकी चिकित्सा का वर्णन करेंगे ॥ २६ ॥
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स्निग्धं रुक्षमपि प्रपद्ये दहनशीघ्रं दहत्यद्भुतं | तत्रैवाधिकवेदनाविविधविस्फोटादयः स्युस्सदा ॥ ज्ञात्वा स्पृष्टमहामिना तु सहसा तेनैव संतापनं । सोष्णैरुष्णगुणौषधैरिह मुहुः सम्यक्प्रदेहः शुभः ॥ २७ ॥
१ इसे ग्रंथांतर में "ट" शब्द से उल्लेख किया है ।
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