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कर्मचिकित्साधिकारः।
(५७१)
तेष्वप्यौषधभीरुराजवनिताबालातिवृद्धादिकान् ।
द्रव्यमायगुणा महासुखकरी प्रोक्ता जलूकाक्रिया ॥ ३३ ।। भावार्थ:-सबसे पहिले अनुशस्त्रके समस्त भेदोंको संक्षेपसे कहेंगे । क्षार, अग्नि, स्फटिक, त्वक्सार ( बांस ) नख, काच, त्वचा व जलौंक (जौंक ) ये सब अनशस्त्र हैं। जो शस्त्रकर्मसे डरते हैं ऐसे राजा, स्त्री, अतिबाल व वृद्धों के प्रति इनका उपयोग करना चाहिये । इनमें जलौंकका प्रयोग जो शस्त्रसदृश गुण को रखता है महासुखकारी है ॥ ३३ ॥
रक्तस्रावके उपाय. वातेनाप्यतिपित्तदुष्टमथवा सश्लेष्मणा शोणितं । श्रृंगेणात्र जकीकसा सदहनेनालाबुना निहरेत् ॥ इत्येवं क्रमतो ब्रुवंति नितरां सर्वाणि सर्वैरतः।
केचित्तत्र जलौकसां विधिमहं वक्ष्यामि सल्लक्षणैः ॥ ३४ ॥ भावार्थः-वात, पित्त व कफ से रक्तदूषित होनेपर क्रमशः शृंग (सींग लगाकर) जलौका । जोंक ) व अग्नियुक्त तुम्बी से रक्त निकालना चाहिये ऐसा कोई कहते हैं । अर्थात् वातदूषितरक्त को सींग से, पित्तदूषित को जाक लगाकर, कफदूषित को तुम्बी लगाकर निकालना चाहिये । कोई तो ऐसा कहते हैं ऐसे क्रम की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन किसी भी दोष से दूषित हो तो किसी उपयुक्त श्रृंग आदि से निकालना चाहिये अर्थात सब में सब का उपयोग करें। अब जौंक से रक निकालने की विधिको व उसके लक्षण को प्रतिपादन करेंगे ॥ ३४ ॥
जलौकसशब्दनिमक्ति व उसके भेद. तासामेव जैलोकसां जलमलं [ ? ] स्यादायुरित्येव वा । प्रोक्ता ता जलायुका इति तथा सम्यग्जलका अपि ॥ शद्वस्तु पृषोदरादिविधिना तव्दादशैवात्र षट्- । कष्टा दुष्टविषाः स्वदेहविविषास्तल्लक्षणं लक्ष्यताम् ॥ ३ ॥
१ इमका यह मतलब है कि तुम्बी से रक्त निकालने के लिये तुम्बी के अंदर दीपक रखना पहता है, अन्यथा उससे रक्त नहीं निकल पाता।
२ जलमासामोक इति जलौकमः । ३ जलमासामायुरिति जलायुकाः ।
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