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शुद्ररोगाधिकारः।
(२६५)
इस प्रकार कुमार्गगामी अर्थात् स्वमार्ग को छोड़कर जानेवाला वह शुक्र, अश्मरीरोग को उत्पन्न करता है । जिस प्रकार महान् शरीर धारण करनेवालों को भी नारकी कष्ट पहुं. चाते हैं वैसे ही शक्तिमान शरीरवाले मनुष्योंको भी यह कष्ट पहुंचाता है ।। १६ ॥
अश्मरी का कटिनसाध्य लक्षण । अथाश्मरीष्वद्भुतवेदनास्वमृ-- । ग्विमिश्रमूत्र बहुकृच्छ्रसंगतम् ॥ व्रणश्च जातासु तथा विधानवि- । द्विचार्य तासां समुपाचरेक्रियाम् ॥१७॥
भावार्थ:--अश्मरीरोग से पीडित व्यक्ति भयंकर वेदना ( दर्द ) से युक्त हो, रक्त से मिश्रित मूत्र अत्यंत कठिनता से बाहर निकलता हो, मूत्रप्रणाली आदि स्थानों में व्रण भी उत्पन्न होगया हो, ऐसे अइमारी रोग असाध्य या कष्टसाध्य होता है । इसलिये चिकित्साके कार्य में निपुण वैद्य को चाहिये कि उपरोक्त लक्षणयुक्त रोगीयों की अत्यंत विचार पूर्वक चिकित्सा करें ।। १७॥
अश्मरी का असाध्य लक्षण । स्वनाभिमुष्कध्वजशोफपीडितं । निरुद्धमूत्रातिरुजातमातुरम् ॥ विवर्जयेत्तत्सिकतां सशर्करा- । महाश्मरीभिः प्रविघट्टितं नरम् ॥ १८ ॥
भावार्थ:- जिसका नाभि व अण्डकोश सूज गया है, मूत्र रुकगया है और अत्यंत वेदना से व्याकुलित है ऐसे शर्करा व अश्मरी रोग से पीडित व्यक्ति को असाध्य समझकर छोड देना चाहिये ।। १८ ॥
सदाश्मरी वनविषाग्निसर्पवत् । स्वमृत्युरूपो विषमो महामयः ॥ सदौषधैः कोमल एव साध्यते । प्रवृद्धरूपोऽत्र विभिद्य यत्नतः ॥ १९ ॥
भग्वार्थ:--अश्मरीरोग सदा वज्र, विष, अग्नि व सर्पक समान शीघ्र मृत्युकारक है। यह रोग अत्यंत विषम महारोगोंकी गणनामें है । वह ( पथरी ) कोमल हो ( सक्त नहीं ) तो औषधिप्रयोगसे टीक होती है । यदि सख्त होगयी हो और बढगयी तो यमपूर्वक फोड कर निकालनेसे टीक होता है अर्थात यह शस्त्रसाध्य है ॥ १९ ॥
वाताश्मरी नाशकघृत ।। इहाश्मरी संभवकाल एव ते । यथाक्तसंशोधन शाधितं नरं ॥ प्रपाययेद महांतकार भि- । इशतावरी गोक्षुरपाटली?मेः ॥ २० ॥ त्रिकंटकोशीरपलाशशाकः । सवृक्षचस्सबलामहाबलेः ।। कपोतवंकैबृहतीद्वयान्वितैः । यवैः कुलत्थैः कतकोद्भवः फलैः ॥ २१ ॥
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