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कल्याणकारके
बालाश्मरी। दिवातिनिद्रालुतया प्रणालिका-। सुसूक्ष्मतः स्निग्धमनोज्ञभोजनात् ॥. कफोल्वणाषिकृताश्मरीगणा । भवंति बालेषु यथोक्तवेदनाः ॥ १३ ॥
भावार्थ:-दिनमें अधिक सोनेसे, मूत्रमार्ग अत्यंत सूक्ष्म होनेसे, अधिक स्निग्ध मधुर ऐसे मनोज्ञ अर्थात् मिष्टान खानेसे, (स्वभाव से ही) अधिक कफ की वृद्धि होने से तीनों दोषोंसे उत्पन्न होनेवाले अश्मरीरोगसमूह ( अर्थात तीनों प्रकारकी अश्मरी) वाककों में विशेषतया होते हैं । उनके लक्षण आदि पूर्वोक्त प्रकार हैं ॥ १३ ॥
पालकोरपन्नाश्मरीका सुखसाध्यत्व। अथाल्पसत्वादतियंत्रयोग्यत- । स्तथाल्पबस्तेरपि चाल्पमासंतः॥ सदैव वालेषु यदश्मरीसुखा- । गृहीतुमाहतुमतीव शक्यते ॥ १४ ॥
भावार्थ:-बालकोंके शरीर व बस्ति का प्रमाण छोटा होनेसे, शरीर में मांस भा अल्प रहनेसे, यंत्रप्रयोग में भी सुलभता होनेसे बालकों में उत्पन्न अश्मरी को अत्यंत सुलभतासे निकालसकते हैं ॥ १४ ॥
शुक्राश्मरी संप्राप्ति । महत्सु शुक्राश्मरिको भवेत्स्वयं । विनष्टमार्गी विहतो निगेधतः । प्रविश्य मुस्कांतरमाशु शोफत् । स्वमेव शुक्रो निरुणद्धि सर्वदा ॥१५॥
भावार्थ:-शुक्र के उपस्थित वेग को धारण करने से वह स्वस्थान से व्युत होकर बाहर निकलने के लिये मार्ग न होने से उन्मार्गगामी होता है । फिर वह वायुके बल से अण्डकोश और शिश्न के बीच में अर्थात् बस्ति के मुख में प्रवेश करके, वहीं रुककर शुष्क होनेसे. पथरी बन जाता है इसीको शुक्राश्मरी कहते हैं। यह अण्डकोश में सूजन उत्पन्न करती है। यह शुक्राश्मरी जवान मनुष्यों को ही होती है । बालकों को नहीं ॥१५॥
. शुक्राइमरी लक्षण । विलीयते तत्र विमर्दितः पुनः । विवर्धत तत्क्षणमात्रसीयतम् ॥ ... कुमार्गगो नारकवन्महातनुं । स एव शुक्रः कुरुतेऽश्मरी नृणाम् ।। १६ ॥
भावार्थ:--अण्डकोश शिश्नेद्रिय के बीच में मसलने से एक दफे तो अश्मरीका विलय होता है । लेकिन थोडे ही समय के बाद मचित होकर पूर्ववत् बढ़ जाता है ।
१ शुक्रके वेग को धारण करने के कारण से बाहर निकलनेका मार्ग संकुचित होता है। इसलिये चहू बाहर नहीं निकल पाता है।
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