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________________ विषरोगाधिकारः । (५१९) onairmanan भावार्थ:-हिंस्रक प्राणियोंसे काटे हुए मनुष्यों की चेष्टा काटे हुए प्राणि के समान यदि होवें, दर्पण, दीप, धूप व जल में उन्ही का रूप देखें अर्थात् दष्ट प्राणियों के रूप दखिने लग जावें, एवं जलत्रास रोग से पीडित हो तो समझना चाहिये कि उन के ये अरिष्ट लक्षण हैं । इसलिये उन की चिकित्सा न करें । यदि किसी को किसी भी प्राणिने नहीं भी काटा हो, लेकिन जलत्रास से पीडित हो तो भी वह अरिष्ट समझना चाहिये । जल के शब्द स्पर्श दर्शन आदिक से जो डरने लगे उसे जल त्रास रोग जानना चाहिये ।। १३४ ॥ मूषिकाविषलक्षण. शुक्रोग्रा मूषिकाख्या प्रकटबहुविधा यत्र तेषां तु शुक्रां । स्पष्टदेतेनखैवोप्युपहतमनुजानां क्षते दुष्टरक्तम् ।। कुर्यादुत्कर्णिकातिश्वयथुपिटकिकामण्डलग्रंथिमूर्छा। तृष्णा तीव्रज्वरादीन त्रिविधविषमदोषोद्भवान्वेदनाढ्यान् ॥१३५॥ भावार्थ:-मूषिकाशुक्र में उग्र विष रहता है अर्थात् मूषिक शुक्रविषवाले हैं । ऐसे मूषिकों के बहुभेद है । जहां इन के शुक्र गिरे, शुक्रसंयुक्त पदार्थ का स्पर्श होवें, दांत नख के प्रहारसे क्षत होवें तो उस स्थान का रत्त.दूषित होकर उसी स्थान में कर्णिका [ किनारे दार चिन्ह ] भयंकर सूजन, फुन्सी, मंडल [ चकत्ते ] ग्रंथि [ग्रांठ] एवं मूर्छा, अधिक प्यास, तीव्रज्वर आदि तीनों विषमदोषों से उत्पन्न होनेवाली वेदनाओं को उत्पन्न करता है ॥ १३५ ॥ मूषिकविषचिकित्सा. ये दधामूषकाख्यैर्नृपनरुमदनांकोलकोशातकीभिः। सम्यग्वाम्यश विरेच्या अपि बहुनिजदोषकमात्कुष्ठनीली ॥ व्याधीश्वेतापुनर्भूस्त्रिकटुकबृहतीसिंधुवारार्कचूर्ण। पेयं स्यात्तैःशिरीषांबुदरवकिणिही किंशुकक्षारतोयैः ।।१३६ ॥ १ इस से यह नहीं समझना चाहिये कि मूषिकों के शुक्र को छोडकर किसी भी अन्य अवयव में विष नहीं रहता है । क्यों कि आचार्यने स्वयं “ दंतै खै” इन शब्दों से व्यक्त किया है कि नख दंतादिक में भी विष रहता है । तंत्रांतर में भी लिखा है--- शुक्रेणाथ पुरीषेण मूत्रेण च नखैस्तथा। दंष्ट्राभिर्वा मूषिकाणां विषं पंचविधं स्मृतं। इस से यह तात्पर्य निकला कि मूषिकों के शुक्र में,अन्य अवयवों की अपेक्षा विष की प्रधानता है। २कर्णिका-कमलमध्यबीजकोशाकृति । Jain Education International . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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