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________________ (२६०) कल्याणकारक भोजन करावें, इस प्रकार के प्रयोगोंसे अर्शरोग दूर हो जाता है । एवं ऐसे दुर्नामरोगीको सुख प्राप्त होता है ।। १३५।। अंतिम कथन । इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो । निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकाहितम् ॥ १३६ ॥ भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिए प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथ में जगतका एक मात्र हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक हे ] ॥ १३६ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे महाव्याधिचिकित्सितं नामादितो द्वादशः परिच्छेदः । इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में महारोगाधिकार नामक बारहवां परिच्छेद समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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