SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महामयाधिकारः। ( २५९) बीज, आठवें रोज ५ बीज खावें । इस प्रकार पांच बीज खाचुकने के बाद, प्रतिदिन पांच २ बीज को बढ़ाते हुए तबतक सेवन करें जबतक सौ बीज न होजाय । सौ बीज खाने के बाद फिर रोज पांच २ घटाते हुए, जबतक एक बीज बचें तब तक खावें । इस प्रकार बढाते घटाते हुए, उपरोक्त क्रमसे जो मनुष्य दस हजार भिलाये के बीजों को खाता है, उसका सम्पूर्ण रोग नष्ट होकर यह निर्जर होता है अर्थात् यह वृद्ध नहीं होता है ।। १२२ ॥ १३० ॥ १३१ ॥ भल्लातक तैल रसायन । स्नेहमेव सततं प्रपिवेदा- । रुष्करीयमखिलाक्तविधानम् ॥ मासमात्रमुपयुज्य शतायु- । सि मासत इतः परिवृद्धिः ॥ १३२ ॥ भावार्थ:-भिलावेके तेलको निकालकर पूर्वोक्त प्रकार वृद्धिहानिक्रमसे एक मास सेवन करें तो सौ वर्षका आयुष्य बढ़ जाता है । इसी प्रकार एक २ मास अधिक सेवन "करने से सौ २ वर्षकी आयु बढती जाती है ।। १३२ ।। अर्शहर उत्कारिका। अम्लिकाघृतपयः परिपक्वो- । कारिका प्रतिदिनं परिभक्ष्य ।। माप्नुयादतिसुखं गुदकीलो- । त्पन्नदुःखशमनं प्रविधाय ॥ १३३ ॥ गावार्थः-खट्टी चीज, घी व दूधसे पकायी हुई लप्सी उस रोगों को खिलानी चाहिये जिससे समस्त अर्श दूर होकर रोगीको अत्यंत सुख प्राप्त होता है ॥ १३३ ॥ वृद्धदारुकादि चूर्ण । वृद्धदारुकमहौषधभल्ला- । ताग्निचूर्णमसकृद्गुडमिश्रम् ॥ मक्षयेद्गुदगदांकुररोगी। सर्वरोगशमनं सुखहेतुम् ।। १३४ ॥ भावार्थः --- अर्श रोगीको उचित है कि वह विधारा, सोंठ, भिलावा व चित्रक इनके चूर्णको गुड मिलाकर प्रतिनित्य खायें जिससे सर्वरोग शमन होकर सुख की प्राप्ति होती है ॥१३४ ॥ __अर्श में तिलप्रयोग। नित्यं खादेत्सत्तिलान् कृष्णवर्णान् । प्रातः प्रातः कौडुबार्धप्रमाणम् ॥ शीतं तोयं संप्रपायत्तु जीर्णे । भुंजीतानं दुष्टदुर्नामरोगी ॥ १३५ ॥ भावार्थ:-नित्य ही प्रातःकाल अच्छे काले तिल अर्ध कुडुब [ ८ तोले ] प्रमाण खावें । उसके ऊपर ठण्डा जल पावे। जब वह पच जाय उस अवस्थामें उसे उचित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy