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________________ महामयाधिकारः। ( २५३) भावार्थ:-अर्श को शस्त्र, क्षार आदि कर्म करनेके लिये, गायके स्तनोंके सदृश आकारवाला, चार अंगुल लम्बा, पांच अंल गोल, दो छिद्रोंसे युक्त ऐसा एक यंत्र चांदी, सोना या ताम्र से बनवाना चाहिये । ऊपर जो दो छिद्र बतलाये हैं उन में से, एक यंत्रके मुख में होना चाहिये (अर्थात् यह यंत्र का मुखस्वरूप रहे) जो अर्श को देखने के लिये है । इस का ओष्ठ अर्थात् बाहर का भाग थोडा उठा हुआ होना चाहिये । दूसरा छिद्र यंत्रके बगलमें होना चाहिये, यह क्षारादि कर्म करनेके लिये है । ये दोनों, तोन अंगुल लम्बा, एक अंगुल मोटा होना चाहिये ॥ १०१ ॥ १०२ ॥ अशपातन विधि । स्नेहनायुपकृतं गुदकीलेः । पीडितं वालिनमन्यतरस्या- ॥ संगसंनिहितपूर्वशरीरं । भक्तवतमिह संवृतदेशे ॥ १०३ ॥ व्यभ्रसौम्यसमये समकायो- | त्थानशायितगुदप्रतिमूर्यम् ॥ शाटकेन गुदसंधिनिबद्धम् । संगृहीतमपि कृत्य मुहद्भिः ।। १०४ ॥ तस्य पायुनि यथा सुखमाज्या-। लिप्यंत्रमुपधाय घृताक्ते ॥ यंत्र पार्श्वविवरागतमर्श- । पातकेन पिचुनाथ विमृज्य ॥ १०५॥ संविलोक्य बलितेन गृहीत्वा । कर्तरीनिहितशस्त्रमुखेन ॥ छर्दयेदपि दहेदचिरातः । शोणितं स्थितिविधाननिमित्तम् ॥१०६॥ कूर्चकेन परिगृह्य विपक-। क्षारमेव परिलिप्य यथार्शः ॥ पातयेन्निहितयंत्रमुख त- । वाकृतं करतलेन पिधाय ।। १०७ ॥ पकजांबवसमप्रतिभासं ! मानमीषदवसन्नमदार्शः ॥ प्रेक्ष्य दुग्धजलमस्तुसधान्या- म्लस्सुधौतमसद्धिमशीतैः ॥ १०८॥ सर्पिषा मधुकचंदनकल्का- । लेपनैः प्रशमयेदतितोत्रम् ॥ क्षारदाहमपनीय च यंत्रम् । स्नापयेत्तमपि शीतलतोयैः ।। १०९ ॥ तन्निवातसुखशीतलगेहे । सन्निवेश्य घृतदुग्धविमिश्रम् ॥ शालिषाष्ठिकयवाधुचितानं । भोजयेत्तदनुरूपकशाकैः ॥ ११ ॥ सप्त सप्त दिवसात्तत्तएकै- । कांकुरक्षतमिहाचरणीयम् ॥ सावशेषमपि तत्पुनरेवं । संदहत्कथितमार्गविधानात् ।। १११ ॥ भावार्थः --अर्शरोगसे पीडित बलवान मनुष्यको स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन आदि, से संस्कृत कर के, लघु, चिकना, उष्ण, अल्प अन्न को खिलाकर, मेघ ( वादल ) से रहित सौम्य समय में किसी एकांत या गुप्त प्रदेश में, किसी मनुष्य की गोद में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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